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________________ । १०) हुई और गुरुकृपा से चिदानन्द नाम पाया। आपको 'बड़ी दीक्षा श्री सुखसागरजी महाराज ने दी थी। आपको हठयोग साधना की जानकारी बहुत जबरदस्त थी। आपने कई ग्रन्थों की रचना की थी। जिनमें (१) द्रव्यानुभव रत्नाकर (२) अध्यात्म अनुभव योगप्रकाश (३) शुद्धदेव अनुभव विचार (४) स्याद्वादानुभव रत्नाकर (५) आगमसार हिन्दी अनुवाद (६) दयानन्दमत निर्णय (७) जिनाज्ञा विधि प्रकाश (८) आत्मभ्रमोच्छेदन भानु (६) श्रुत अनुभव विचार (१०) कुमत कुलिंगोच्छेदन भास्कर प्राप्त हैं। प्रभाव से संसार से विरक्ति होकर सिद्धभूमि में जाकर आपका स्वर्गवास सं० १९५६ पौष बदि ६ प्रातः १० बजे वृक्षवत् साधना करने की आत्मप्रेरणा हुई। इस काल में जावरा में हुआ था। ऐसी कठिन साधना असम्भव बता कर समुदाय में साधु खरतरगच्छ के चारित्र सम्पन्न योगसाधकों में श्री मोती- जीवन अमुक काल तक बिताने की आज्ञा पाकर पुनशीभाई चन्द्रजी महाराज का नाम भी उल्लेखनीय है । ये पहले की प्रेरणा से खरतरगच्छीय श्री मोहनलालजी महाराज के लूणकरणसर के यतिजी के शिष्य थे। उत्कृष्ट वैराग्य प्रशिष्य चारित्र-चूड़ामणि गणिवर्य श्रीरत्नमुनिजी ( आचार्य भावना से प्रेरित हो यह साधु बने । इनकी साधना बड़ी श्री जिनरत्नसूरि ) के पास सं० १९८६ कच्छ देश के गांव कठोर थी। शास्त्रोक्त विधि से स्वाध्याय ध्यान के पश्चात् लायजा में दीक्षित हुए। उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी के तीसरे प्रहर की चिलमिलातो धप में शहर में आकर रूखा पास अल्पकाल में समस्त शास्त्रों का अ सूखा आहार लेते। ये बड़े सरलस्भावी और ध्यानयोगी आप षड्भाषा व्याकरण, काव्य, कोश, छंद, अलंकार आदि थे। हमने भद्रावती की प्राचीन गफाओं में आपके दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान बने। बारह वर्ष पर्यन्त गुरुजनों की किये थे । आपका स्वर्गवास भोपाल में हुआ था। तपस्वी निश्रा में चारित्र को उत्कृष्ट साधना करते हुए विचरे । श्री चारित्रमुनिजो आपके ही शिष्य थे। भद्रावती में सं० २००३ मितो पोष सुदि १४ सोमवार संध्या ६ बजे आपकी प्रतिमा विराजमान कर संघ ने आपके प्रति श्रद्धा अमृत वेला में आपने मोकलसर गुफा में प्रवेश किया। व्यक्त की है। आपकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। वहां ऊपर बाघ की गुफा थी और इस गुफा में भी दो खरतरगच्छ की आध्यात्मिक परम्परा-भवन के शिखर विषधर साँप रहते थे, जिसमें कठिन साधना की। सं० सदृश वर्तमान के अन्तिम महापुरुष श्री भद्रमुनिजी-सहजा- २००४ की कातिक पूर्णिमा को विहार कर वहां से गढ़नन्दधनजी हुए हैं जिनका अभी-अमी मिती कार्तिक सुदी सिवाणा पधारे। तत्पश्चात् पाली, ईडर आदि स्थानों २ को हम्पी में निर्वाण हुआ है। आपकी साधना अद्भुत, में गुफावास किया। ईडर में तप्त-शिलाओं पर घण्टों अलौकिक और बड़ी ही कठिन थी। आपका जन्म सं० कायोत्सर्ग करते थे । चारभुजा रोड ( आमेट) में चन्द्रभागा १६७० मिती भाद्रपद शुक्ला १० के दिन कच्छ के डुमरा तटवर्ती गुफा में केवल एक पंछिया और एक चद्दर के सिवा गाँव में हुआ था। उनोस वर्ष की अवस्था में बम्बई अन्य वस्त्र के बिना, कड़ाके की ठण्ड में तप करते रहे । प्रतिभातबाजार में आपकों ध्यान-समाधि लग गई जिसके दिन ठाम चौविहार एकाशना तो वर्षों से चलता ही था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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