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________________ [ १२१ ] सतरहवीं शती के "सुमति" नामक खरतरगच्छीय कवि अध्यात्म रसिक हुए हैं। जिनके कतिपय पद तत्कालीन लिखित हमारे संग्रह के दो गुटकों में मिले जो "वीर वाणी" में प्रकाशित किये हैं । सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनप्रभसूरि शाखा के विद्वान भानुचन्द्रगणि से शिक्षा प्राप्त श्रीमालज्ञातीय बनारसीदास नामक सुकवि हुए। उन्होंने दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्रन्थों से प्रभावित होकर अध्यात्म मार्ग को विशेष रूप से अपनाया जिससे उनका मत अध्यात्म मती-बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हो गया। थोड़े समय में ही इस अध्यात्म मत का दूर दूर तक जबर्दस्त प्रभाव फैला । सुदूर मुलतान के कई खरतरगच्छीय ओसवाल श्रावकों ने भी उससे अध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त की; फलतः उधर विचरने वाले सुमतिरंग, धर्ममन्दिर, और श्री मद्देवचन्द्रजी ने कई महत्वपूर्ण अध्यात्मिक रचनायें उन्हीं आध्यात्मिरसिक श्रावकों की प्रेरणा से की । बनारसीदासजीका समयसार, बनारसी विल स, अर्द्ध कथानक आदि साहित्य उल्लेखनीय है । श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अकबर प्रतिबोधक चतुर्थ दादा श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य श्री पुण्यप्रधानोपाध्याय की शिष्य परम्परा में उ० दोपचन्द्रजी के शिष्य थे । आपका जन्म सं० १७४६ में बीकानेर के किसी गांव में लूणिया तुलसीदासजी के यहां हुआ । लघुक्य में दीक्षा लेकर श्रुतज्ञान की जबदरस्त उपासना की । आप अपने समय के महान् प्रभावक, अतिशय - ज्ञानी और अद्वितीय अध्यात्म तत्ववेत्ता थे । आपकी १६ वर्ष की अवस्था में रचित ध्यानदीपिका चौपई जैसी रचनाओं से आपके प्रौढ़ पाण्डित्य और अध्यात्म ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। चौवीसी आदि रचनाओं में आपने तत्त्वज्ञान और भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित की है। स्नात्रपूजा आदि कृतियाँ भक्ति की अजोड़ स्रोतस्विनी हैं । आपकी कृतियों का संकलन करके ४५-५० वर्ष पूर्व योगनिष्ठ आचार्य Jain Education International प्रवर श्री बुद्धिसागरसूरिजी ने अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल से श्रीमद्देवचन्द्र भाग - १-२ में प्रकाशित की थी एवं आचार्य महाराज ने आपकी संस्कृत स्तुति आदि में बड़ी ही भक्ति प्रदर्शित की है । श्रीमद्देवचन्द्रजी ने क्रियोद्धार किया था, वे सर्वगच्छ समभावी और जैनशासन के स्तम्भ थे । आपने सं० १८१२ भा० व० १५ के दिन नश्वर देह का त्याग किया। विशिष्ट महापुरुषों द्वारा ज्ञात अनुश्रुतियों के अनुसार आप वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में केवली पर्याय में विचरते हैं । श्रीमद्देवचन्द्रजी महाराज के रास- देवविलास में आपके ध्रांगधा पधारने पर जिन सुखानन्दजी महाराज से मिलने का उल्लेख आया है वे सुखानन्दजी भी खरतरगच्छ के ही अध्यात्मी पुरुष थे उनके कई पद आनन्दघन बहुत्तरी में प्रकाशित पाये जाते हैं तथा कई तीर्थकरों व दादासाहब के स्तवन भी उपलब्ध हैं । दीक्षानन्दी सूची के अनुसार आप सुगुणकीर्ति के शिष्य थे और सं० १७२८ पोष बदि ७ को Satara में श्रीजिनचन्द्रसूरि द्वारा दीक्षित हुए थे । सं० १८०५ में प्रांगघ्रा प्रतिष्ठा के समय देवचन्द्रजी से बड़े प्रेमपूर्वक मिले उस समय आपकी आयु १० वर्ष से कम नहीं होगी । श्रीसुखानन्दजी की कृतियां अधिक परिमाण में मिलनी अपेक्षित है | उन्नीसवीं शताब्दी के खरतरगच्छीय विद्वानों में श्रीमद्ज्ञानसारजी बड़े ही अध्यात्मयोगी हुए हैं जिन्हें छोटे आनन्दघनजी कहा जाता है। इनकी चौवीसी, बीसी, बहुत्तरी इत्यादि संख्याबद्ध कृतियां हमारे " ज्ञानसार ग्रन्थावली" में प्रकाशित हैं । श्रीमद् आनन्दघनजी की चौवीसी और बहुत्तरी के कई पदों पर आपने वर्षों तक मनन कर बालावबोध लिखे हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आपका जन्म सं० १८०१ दीक्षा सं० १८२१ और स्वर्गवास सं० १८६८ में हुआ था। आपका दीर्घजीवन त्याग, तपस्या, उच्चकोटि की साहित्य साधना व योग साधनामय था । बड़े-बड़े राजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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