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________________ । ११८ ] आईत्-दर्शन की मान्यतानुसार वे बड़े आत्म-योगी पुरुष धर्म शास्त्रों में टीटोडी के अंडे समुद्र में जाने से अपने चंचुथे, इसमें कोई शक नहीं। पात से समुद्र को खाली करने जैसा दृष्टान्त है। परन्तु श्रीमद् देवचन्द्रजी को साहित्य रचना में से प्रभु की टोटोडी के आत्म विश्वास ने गरूङजी को आकर्षित किया, प्रभुता, समर्पण भाव, आशय की विशुद्धि का आधार लेकर गरुड़जी के द्वारा विष्णु भगवान की कृपा हुई। उन्होंने ही मैं आत्म योग सरोवर में चंचुपात कर रहा हूँ। समुद्र उसके साध्य को सफल बनाया और समुद्र को अंडे वापस के प्रवास में जैसे प्रवहण ही आधार रूप है, इसी तरह से देकर क्षमा मांगनी पड़ी। ऐसे ही इस प्रभु की प्रभुता में इनके प्रवचन-रूपी प्रवहण, मेरो आत्म-योग-साधना में वह शक्ति रही हुई है जिनको कृपा एवं अनुग्रह से हमारा मेरे लिये पुष्टावलंबन रूप है। अगर यह आधार न मिला बेडापार हो सकता है। इसलिये दिन प्रति दिन प्रमु के होता तो इस भयानक भवसागर को पार करने का साहस प्रति दासत्व-भाव की वृद्धि करते जाना-यही मुक्ति द्वार भी नहीं होता, जैसे कि अपनी भुजा से समुद्र पार करने- तक पहुँचने का सरल उपाय है । "दासोऽहं" भाव अपने वाले को स्थिति होती है। वह कितना ही पराक्रम करके आप अप्रमत्त गुणस्थानकों में 'सोऽहं' भाव पर पहुंचायेगा प्रवहण बिना अपनी भुजा बल से थोड़ो प्रगति साधे परन्तु और अन्त में “सोऽहं" भाव भी वीतराग गुणस्थानकों में समुद्र की एक ही तरंग में वह शक्ति है कि वह उसका छूटकर ऐसी केवलज्ञान स्थिति में रहा हुआ अपने शुद्ध सारा पुरुषार्थ निष्फल बना सकती है। जिस तरह समुद्र सिद्धात्म स्वरूपस्थ "ह' "एगो मे सासओ अप्पा, नाण मच्छ, कच्छ, मगर आदि भयानक जंतुओं से भरा है, उसी दंसण संजुओ" स्व पर निराबाध सहजानन्द भाव सिद्ध स्वरूप तरह इस भवसागर में भी संज्ञा, कषाय, विषय वासना, को प्राप्त कर यगा । तृष्णा रूपी ऐसे भयानक जंतु भरे पड़े हैं और हम प्रभु के प्रवचन रूपी प्रवण को प्राप्त किये बिना उनसे बच ही नहीं इस प्रकार पूज्य श्रीमद् देवचन्द्रजी का मैं दिन रात सकते। बड़े बड़े पुरुषार्थी पूर्वधर पुरुष भी प्रगति के प्रवाह जितना भी गुण गाऊं, वह थोड़ा ही है परन्तु उनके दिव्य में से पड़कर निगोद तक पहँचे हैं तो मेरे जैसे पुरुषार्थहोन जीवन सम्बन्धी इस स्थान पर दो शब्द उनके प्रति मेरा अज्ञानी इस प्रवास में अपनो हो ज्ञान क्रिया के बल पर पूज्य भाव प्रदर्शित करने के लिये उल्लिखित किये हैं, इसमें कैसे विकास साध सकते हैं ? अत: इस अगम, अपार संसार मति मंदता के कारण कोई त्रुटि रही हो तो क्षमा को पार करने का मेरे जैसे पामर प्राणी का पुरुषार्थ, हिन्दू चाहता हूं। सुज्ञेषु किं बहुना ! - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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