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________________ । ११६ ] जो पुण्य-पवित्र आत्मा जन्म-जन्मान्तरों में अहिंसा में मुझे जब भिन्न-२ साहित्य का अवलोकन, अध्ययन, मनन संयम-तप का उत्तरोत्तर विकास साधते हुए केवलज्ञान को और परिशीलन करना पड़ा तब उसमें मुझे द्रव्यानुयोगी प्राप्त करके इस लोकालोक प्रकाशक-पूर्ण-विज्ञान प्रतिपादन महात्मा देवचन्द्रजी को 'आगमसार' आदि पुस्तकों का के अधिकारी बनते हैं, वे ही तीर्थकर कहलाते हैं। जीवों तथा उनके तत्वगभित स्तवनों आदि का अध्ययन करने का को तारने के लिये मार्गदर्शक आगमिक भाषा में वे महा- भी सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमें से उपलब्ध बोध के लिये निमिक, महा-सार्थवाह, महा-माहण और महागोप इन महान उपकारी के उपकार का मैं अनन्त ऋणी हैं, और कहलाते हैं। उनका प्रवचन ही परमोत्कृष्ट धर्म एवं धर्मा- उन्हीं महापुरुष के दिव्य जीवन का यशोगान करने के नुशासन कहलाता है। इस विश्वतंत्र के विशिष्ट विज्ञान उपलक्ष में ही यह लेखनी उठाई है। यद्यपि ऊपर लेख की को प्रकाश में लाये बिना इसकी पदार्थ-व्यवस्था के परदे के मर्यादा के बाहर पूर्व-भमिका बहुत बन गई है, अतः मैं पीछे रहो हुई परोपकार की प्रक्रिया का परमार्थ रूप उनके विषय में अब क्या लिखू ? परन्तु यह कहावत प्रसिद्ध परमानन्द पद प्राणो प्राप्त करे, ऐसा जो गुप्त रहस्य रहा है कि राम के यशोगान में रावण को अनोखी कथनो इतनी हुआ है, उसकी पूर्ति हेतु केवल अर्हन्त भगवंत ही अधिकारी विस्तृत बताई कि राम की कथनी उससे भी विशेष विस्तृत है । अत: वे ही कार्य की सिद्धि के लिये कारण की सम्यग- करना आवश्यक समझा गया, परन्तु उस सूज्ञचिंतक ने तो सामग्री सर्जन करते हैं और उसमें स्वाभाविक वैभाविक एक ही वाक्य में कह दिया कि रावण अनेक विद्या, सिद्धि, धर्मक्षेत्र आदि साधन ऐसा सामग्री जितनी प्राणो को अपने ऋद्धि, वृद्धि, संपत्ति और शक्ति का स्वामो था परन्तु राम परमानन्द पथ की प्राप्ति के लिये चाहिये, उसकी पूर्ति करते की किसी शक्ति का वर्णन किए बिना यहो कहा कि राम ने हैं; अटल नियम है। इसलिये सारा विश्वतंत्र उनकी सेवा में रावण को पराजित किया। इससे सिद्ध हो गया कि राम प्रवृत्त है (The whole Cosmic order re- में रावण से भो अनेक विशिष्ट शक्तियाँ थीं। इसी तरह से mains at their service )। इसिलिये पदार्थ मैं भी यहाँ कहना चाहता हूं। व्यवस्था के विधान के मुताबिक उनके पंच कल्याणकों में आपके साहित्य में से मैं जो कुछ समझा हूँ, वह सागर देवेन्द्रों, सुरेन्द्रों का शुभागमन होता है और सामग्न की रूपी गागर में बतलाना चाहता हूँ कि अपने जोवन के पूर्ति करनेवाले प्रभु हैं, ऐसा संकेत करनेवाले अशोकवृक्षादि उत्थान के लिये, परमानन्द पद की प्राप्ति के लिये एवं अष्ट महाप्रा तिहार्य का प्रादुर्भाव होता है। प्राणियों को मुक्ति मंगल निकेतन का निवासी बनने के लिए तीन बातें हरएक प्रतिकूलता को पलायन करके सानुकूलता के साधन बहुत जरूरी हैं:जुटाने की विशिष्ट-विभूति जो चौंतीस अतिशयों के नाम (१) प्रभु की प्रभुता (२) समर्पणभाव (३) आशय की से प्रसिद्ध है, वह भी उनके स्वाधीन हो जाती है। विशुद्धि। इसलिये नैसर्गिक पदार्थ व्यवस्था के प्रमाणभत प्रति- उपरोक्त तीन बातें यदि ठीक तरह से समझी जावे तो निधि (The most bonafide representative) मानव सुखे-सुखे नरेन्द्र देवेन्द्र, सुरेन्द्र और अहमिन्द्रों की तीर्थकरों और उनके स्थापित तीर्थ की आराधना-प्रभावना अनुपम ऋद्धि समृद्धि की सरिता में सुख संपादन करता हो हमारे लिये परमोत्कृष्ट मंगल रूप एवं परम श्रेयस्कर हुआ सिद्धिधाम में पहुंच सकता है। इन बातों को समझे है। इसी आराधना-प्रभावना के यथार्थ बोध के उपलक्ष बिना जो प्रागो आनो परिमित प्रज्ञा व मर्यादित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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