SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीगुणरत्नगणि को तर्कतरङ्गिणी [जितेन्द्र जेटली ] अनेकान्तवाद का आचरण करने वाले जैनाचार्यों ने इस तर्कतरङ्गिणी के अभ्यास से यह स्पष्ट प्रतीत होती अपने सम्प्रदाय के दार्शनिक ग्रन्थों पर टीका-टिप्पण आदि है कि “ी गुणरत्नगणिजी अनेक शास्त्रों के विद्वान होते की रचना की है यह आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु अन्य हुए एक अच्छे तार्किक थे । थे खरतरगच्छ के थे इसलिए दर्शन के ग्रन्थों पर भी प्रामाणिक व्याख्या रूप टीकार्ये उस गच्छ के लिए यह अत्यन्त गौरस को बात है। वे किस लिखी हैं । ऐसी रचनाओं में से श्रीगुणरत्नगणिजी की तर्क- प्रकार के उच्च श्रेणी के तार्किक थे यह तर्कतरङ्गिणो से हो तरङ्गिणी भी है। ज्ञात होता है। श्रीगणरत्नगणि विनयसमद्रगणि के शिष्य थे। विनय मुद्रगाण के शिष्य थे। विनय- तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका की टीका होने समुद्रगगि जिनमाणिक्य के शिष्य थे जो कि जिनचन्द्रसूरि के से सामान्यत: चर्चा में गोवर्धन का वे अनुसरण करते हैं फिर समानकालीन थे। जिनचन्द्रसूरि श्रीहीरविजयसूरि के समान- भी वे जिन सिद्धान्तों की चर्चा गोवर्धनजी ने नहीं की है कालीन थे। उनका समय मोगल सम्राट अकबर के समय उन सिद्धान्तों की चर्चा भी समय २ पर करते हैं। जैसे कि का है क्योंकि वे उनके दरबार में आमन्त्रित हुआ करते थे। गोवर्धन मङ्गलवादकी कोई विशेष चर्चा नहीं करते हैं श्री गुणरत्नगणि ने तर्कतरङ्गिणो के उपरान्त 'काव्यप्रकाश' फिर भी गणरत्नगणि अपनो तर्कतरङ्गिणो में अन्य नैयायिक के ऊपर एक १०००० श्लोकप्रमाण की सुन्दर टीका लिखी है। निहालों की भांति विद्वानों की भांति मङ्गलवादको चर्चा विरतार से करते हैं। यह टीका उन्होंने अपने शिष्य रत्नविशाल के लिए लिखी। इस चर्चा में बे उदयनाचार्य, गङ्गश, पक्षधर मित्र आदि है। इसी तरह यह तर्कतरङ्गिणी भी उन्होने उसी शिष्य के रुढ प्राचीन तथा अर्वाचीन f द्वानों को वे मङ्गल विषयक वास्ते लिखो है । तर्कतरङ्गिणी पुस्तिका में यह स्पष्ट निदेश मतों की आलोचना करके दे गङ्गश उपाध्याय के मत से है । वे लिखते है कि सम्मत होते हैं। श्रीमदल विशालाख्यस्वशिष्याध्ययनहेतवे । मङ्गलवाद के अनन्तर वे न्यायसूत्र के प्रमाण प्रमेय गुणरत्नगणिश्चक्रे टोकां तकंतरङ्गिणीम् ॥ आदि प्रथम सूत्र को लेकर समासवाद की चर्चा करते हैं । यह तर्कतरङ्गिणी गोवर्धन की प्रकाशिका जो कि केशव यद्यपि गोवर्धन ने यह चर्चा मोक्षवाद के अनन्तर की है। मिश्र की तर्कभाषा के ऊपर टीका है उसकी प्रतीक है। परन्तु गुणरत्नगणि ने यह चर्चा यहीं पर की है और तरङ्गिणी की समाप्ति में और मङ्गल में इस विषय का उचित स्थान भी यही है क्योंकि समासवाद की चर्चा से ही निर्देश किया गया है। न्यायसूत्र के प्रमाण को लेकर अपवर्ग का अर्थ स्पष्टतर होता १ द्रष्टव्य 'जनेतर ग्रन्थों पर जेन विद्वानों की टोकाएँ' भारतीय विद्या वर्ष २ अङ्क ३ ले० अगरचन्द नाहटा तथा सप्तपदार्थी जिनवईनसूरि टीका सहित प्रस्तावना पृ० ७ से ६ । प्र० ला० द० भारतीय विद्यामन्दिर अहमदाबाद २ द्रष्टव्य युगध्धान श्रीजिनचन्द्रसूरि पृ० १६३-१६४ श्री अगर चन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy