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________________ एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति नकल करके भेजा थी, इससे स्पष्ट स्वर्णाक्षरो कल्पसूत्र-प्रशस्ति (१) है कि संघपति मण्डलिक के भ्राता संघपति महीपति ने सं० स्वस्ति सर्वास्तिमन्मुख्यः, ऊकेशः ज्ञातिमण्डनः ॥ १५०६ में यह प्रति लिखवायी थी और इस प्रशस्ति में पद्मसिंहः पुरा जज्ञे, खोमसिंहस्तत: क्रमात् ॥१॥ महीपति की पत्नी पुत्रों और पुत्रवधु के नाम प्राप्त हैं, खोमणिर्दयिता तस्य हरिपालस्तदङ्गभूः ॥ अत: महीपति को अल्पायु में मृत्यु हो गई ---यह अनुमान निविष्टं यन्मनः पूष्णि श्राद्धधर्ममयं महः ।।२।। जो आबू के प्रतिमा लेखों में महीपति के स्त्रीपुत्रों के नाम दसाजकान्हड़ी भोज वीरभावासिगस्तथा ।। न मिलने से किया गया था, प्राप्त प्रशस्ति से असिद्ध हो बड याकश्च सर्वेऽपि षडमी हरिपालजाः ॥३॥ जाता है। इसी तरह देल्हा के भी स्त्रीपुत्रा द का प्रतिमा भारमल्लो भावदेवो, भीमदेवस्तृतोयकः ।। लेखों में नाम न मिलने से उन्होने अल्पायु में दोक्षा ले ली कान्हड़स्य त्रयोऽयेते सुताः सूजनताधिता: ॥४॥ होगी व उनका नाम जयसागर रखा गया होगा --यह छाड़ादयः पुनः पञ्च नन्दना भोजसम्भवाः ।! अनुमान भी प्राप्त प्रशस्ति में देल्हा के पुत्र कोहट का नाम आसोद्वोरमसम्भूतो-नगराजः सुताधिकः ।। ५॥ मिल जाने से गलत सिद्ध हो जाता है । सब से महत्वपूर्ण प्रथमराज इत्यस्ति बडुयाङ्गरुहो महान् ।। बात इस प्रशस्ति से यह मालूम होती है कि हरिपाल के पुत्र तेषु श्रीमानुदारश्च, साधासाको व्यशिष्यत ।।६।। आसिग या आसराज के पुत्रों में से तृतीय पुत्र जिनदत्त तत्प्रिया प्रियधर्मासो - त्सोरित्यमलाशया । ने बाल्यावस्था में दीक्षा ग्रहण करली थी। आठवें श्लोक तयारष्टनेष्वाद्यः पालः प्रल्हाद भन्मनाः ।।७।। में इसका स्पष्ट उल्लेख होने से यह निश्चित हो जाता द्वितीयो मण्डना नाम कुटुम्ब जनपूजितः ।। है कि जयसागरजो दरड़ा गोत्रीय आसराज के पुत्र थे और तमोयो जिनदत्तश्च यो बाल्येऽप्यत्रहीनतम् ।।८।। उनका 'जिनदत्त' नाम था, तथा बाल्यावस्था में दीक्षा चतुर्थः किल देल्हाख्य झंटाक: पञ्चमः पुन: ॥ ग्रहण कर ली थी। प्रतिमा लेवों में हरिसाल के पूर्वजों मण्डलाधिपवन्मान्यः षष्ठो मण्डलिकस्तथा ।। के नाम नहीं मिलते लेकिन प्रशस्ति में पद्मसिंह-खोमसिंह सप्तमः साधुनालाको -55टमः साधुमहीपतिः ॥६॥ ये दो नाम पूर्वजों के और मिल जाते हैं तथा वंशजों के गोविन्दरतनाहर्ष -- राजा पाल्हाङ्गजास्त्रयः ॥ भी कई अज्ञातनाम प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही साथ । कोहटो देल्ह जन्माऽऽस्ते तस्याप्यस्त्यम्बडोङ्गजः ॥१०॥ इस वंश के पुरुषों के कतिपय अन्य सुकृत्यों का भो उल्लेख- श्रीपालो भोमसिंहश्च, द्वाविमौ ऊण्टजातको ॥ नीय विवरण मिल जाता है। यथा साजण: सत्यनाऽस्ते, पुत्रो मण्डलिकस्य तु ॥११॥ संघपति आसा धर्मशाला, तीर्थयात्रा, उपाध्यायपद पोमसिंहो लज्म क्षम)सिंहो-रगमल्लश्च माल्हजा: ॥ स्थापन और स्वधर्मो-वात्सल्यादि में द्रव्य का सव्ययकर सुस्थिरः स्थावरो नाम, महीपत्यङ्गसम्भव: ॥१२॥ कृतार्थ हए थे। सं० १४८७ में उ.जयसागरजी के सान्निध्य तदभार्या प्रतलि: पूण्य-वती शीलवती सती ॥ में मण्डलिक ने शत्रुञ्जय-गिरनार महातीर्थों की संघ सहित तनयौ सुनयौ तस्या देवचन्द्र-हवाभिधो ॥३॥ यात्रा की थी। एवं दूसरी बार सं० १५०३ में भी उभय- कलां देव चन्द्रस्य, कोबाई नामतः शुभा ॥ तीर्थों की यात्रा की थी। मण्डलिक आदि ने आबू पर महीपतिपरोवार - श्चिरं जयतु भूतले ॥१४॥ चौमुख प्रासाद बनाया था, इसी प्रकार गिरनार तीर्थ के इत्यादि सन्ततिर्भयस्यासाकस्योज्ज्वले कुले। वीर जिनालय में देवकूलिका निर्माग करवायी थो। उत्तरोत्तर सत्कर्म-विरतास्ते निरन्तरम् ॥१५॥ प्रस्तुत प्रशस्ति वा० जयसागर की रचित है ऐतिहासिक धर्मशाला तीर्थयात्रो-पाध्याय स्थापनादिषु । दृष्टि से महत्वपूर्ण होने से नोचे दी जा रही है। साधम्मिकेषु चासाको धनं निन्ये कृतार्थताम् ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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