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________________ के. आर. चन्द्र (९) आचारांग के महावीर-चरित्र के साथ तुलना करने पर ये सब प्रसंग बाद में जुड़े हैं ऐसा स्पष्ट मालूम होता है। (१०) इनके अलावा शक्रेन्द्र द्वारा की गई स्तुति (१३-१६), उनके द्वारा यह विचार करना कि तीर्थंकर ऐसे कल में जन्म ले हो नहीं सकते और हरिणेगमेसि की नियुक्ति करके गर्भ का अपहरण करवाने तक का प्रसंग (१७-२८) बाद में जोड़ा गया है। इतने लम्बे वर्णन के बाद जिसमें गर्भापहरण हो जाता है कल्पसूत्र के सूत्र ३० में गर्भापहरण किये जाने की बात संक्षेप में फिर से कही गयी है। इससे मालूम होता है कि सूत्र ३० में उपलब्ध सामग्री का हो विस्तारपूर्वक वर्णन बाद में १७ से २८ सूत्रों में किया गया है। इसी सूत्र ३० की सामग्री आचारांग के सूत्र ७३५ में भी वैसी ही मिलती है । अतः स्पष्ट है कि विस्तृत वर्णन बाद का है। (११) सामान्य शाटक के बदले में देव-दष्य का उल्लेख (११४), उन्हें तेलोक्कनायग और धम्मवर चक्कवट्टी कहना (१), एक अनुकम्पक देव के बदले शक्रेन्द्र एवं हरिणेगमेसि को गर्भापहरण के साथ जोड़ना (१७.२८) जन्म के समय अमूल्य वस्तुओं की वर्षा राजभवन में ही करवाना (१०९), अपहरण के समय 'अप्पाबाहं अप्पाबाहेणं' का उल्लेख (३०) एवं जन्म के समय 'पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि' (३०,९३) का उल्लेख, जन्म के समय पर अनेक वस्तुओं की वर्षा (९५) और गर्भ में आने पर समृद्धि में अनेक अधिक वस्तुओं का जुड़ना (८५), महावीर के विशेषणों में वृद्धि (११०,१२०) दीक्षा के समय देवों और लोगों द्वारा स्तुति एवं प्रशंसा का प्रकरण (११०-११३) । ये सब बातें आचारांग में उपलब्ध नहीं हैं और कल्पसूत्र में भी बाद में जोड़ी गई हैं। ३. (ख) भाषा में त्रुटियाँ (१) समणे भगवं महावीरे... आरोगा आरोगं दारयं पयाया-९३ ३. (ग) समास युक्त एवं कृत्रिम शैली होने के कारण निम्न प्रसंग बाद में जुड़े हैं ऐसा स्पष्ट है। गर्भापहरण का प्रसंग (१३-१५) शयनगृह (३३) स्वप्नों के वर्णन (३४-४७) अट्टनशाला, मज्जनगृह, उपस्थानशाला, स्वप्न पाठकों द्वारा स्वप्न-फल कहना (६३-७६) जन्मोत्सव मनाना (९७-९९) दीक्षा के लिए प्रस्थान (११३) विहार काल में भगवान् महावीर की सहिष्णुता (११७-११९) ४. उपसंहार कल्पसूत्र एवं आचारांग के महावीर-चरित्र में समय-समय पर वृद्धि एवं परिवर्तन होते हुए भी आचारांग में कुछ मुल बातें सुरक्षित रही हैं जो कल्पसूत्र से प्राचीन लगती हैं और वे इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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