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________________ ( ३१ ) शंकर के पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पं० सुखलाल जी ने संस्कृत तथा दर्शन के प्रखर पण्डित के रूप में अपनी विद्वत्ता की परम्परा जारी रखी। पं० सुखलाल जी के पश्चात् उनके पट्टशिष्य सभापंडित श्री दलसुखभाइ मालवणिया ने संस्कृत-प्राकृत के ज्ञान की ज्योति जलाये रखी। इतने वर्ष बीतने के बाद अब भारत सरकार को उनका सम्मान करने को सूझा है, यह बहुत देर बाद सूझा है, फिर भी आनन्ददायक तो है ही, गुजरात का यह गौरव है कि संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में भारत सरकार ने इनको पुरस्कार प्रदान किया है । इस पुरस्कार में ताम्रपत्र के साथ पाँच हजार रुपये वार्षिक पेन्शन समाविष्ट है । पेन्शन तो ठीक ही है, परन्त सबसे अधिक गौरव का विषय यह है कि संस्कृत ज्ञान के नक्शे में अब गुजरात का नाम भी अंकित हो गया है, श्री दलसुखभाई मालवणिया इस अभिनन्दन तथा अभिवन्दन के सच्चे अधिकारी हैं। वर्तमान में जहाँ संस्कृत के ज्ञान की महिमा निरन्तर क्षीण होती जा रही है, वहाँ संस्कृत के ज्ञान की उस परम्परा को जीवित रखने में उनका विशेष महत्त्व रहा है। सौराष्ट्र के एक अनाथाश्रम में पला यह बालक अहमदाबाद के एल० डी० इन्स्टीटयट ऑफ इण्डोलोजी के निदेशक के पद पर पहुँच सका है, इस हेतु वे अपनी विद्या-साधना और पुरुषार्थ के आभारी हैं। श्री दलसुखभाई का मूल निवास-स्थान सौराष्ट्र के सुरेन्द्रनगर जिले में आने वाला सायला नामक गाँव है। इनके पर्व वंशज मालवण में रहते थे, इसी कारण ये मालवणिया कहलाये। ये जाति से भावसार तथा धर्म से स्थानकवासी जैन हैं । सन् १९१० में इन्होंने जन्म ग्रहण किया, ये दस वर्ष की अवस्था के ही थे कि इनके पिताश्री डाह्याभाई का स्वर्गवास हो गया। सुरेन्द्रनगर के अनाथाश्रम में रहते हुए इन्होंने अंग्रेजी की ५वीं कक्षा तक अध्ययन किया। श्री स्थानकवासी जैन श्वेताम्बर कान्फ्रन्स ने इनको जैन ट्रेनिंग कालेज में अध्ययन हेतु बीकानेर भेजा। इन्होंने अहमदाबाद में पण्डित बेचरदास जी के पास आगम-ग्रन्थों का अध्ययन किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन में इन्होंने पालि भाषा और बौद्ध धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। कुछ समय तक इन्होंने बम्बई के 'जैन प्रकाश' के कार्यालय में कार्य किया । सन् १९३४ में पण्डित सुखलाल जी से इनका परिचय हुआ। पण्डित सुखलाल जी के वाचक के रूप में बनारस में रहते हुए ये पण्डित जी के शिष्य बने और जब सन् १९४४ में पण्डित सुखलाल जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सेवा-निवृत्त हुये, तब उनके स्थान पर ये जैन चेयर के प्रोफेसर बने। बाद में श्री कस्तुरभाई लालभाई के प्रयासों से स्थापित एल० डी० इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद के निदेशक के रूप में नियुक्त हुए। सन् १९७६ तक सत्रह वर्ष इन्होंने इस संस्था में निदेशक के रूप में कार्य किया, यह विद्यामन्दिर श्री कस्तूरभाई लालभाई के आर्थिक पुरुषार्थ तथा दूरदर्शिता के कारण ही बन सका परन्तु सच्चे अर्थ में विद्यामन्दिर, श्री दलसुखभाई के कारण ही बन सका। सन् १९७६ में इस संस्था के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए, फिर भी उस संस्था के सलाहकार एवं मानद प्राध्यापक के रूप में इस संस्था को इनकी सेवाओं का लाभ मिलता रहा है। उसी मध्य सन् १९६८ में ये कनाडा के टोरेण्टो विश्वविद्यालय में भारतीय दर्शन और विशेषकर बौद्ध दर्शन के अध्यापन हेतु डेढ़ वर्ष के लिए गये थे। जैन दर्शन और संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों का उनका अभ्यास गहन एवं तलस्पर्शी है, इनकी रुचि विशेष रूप से दार्शनिक साहित्य की ओर रही है। जैन दर्शन, जैन आगम, भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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