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________________ दशरथ गोंड २२९ च्युत" कहा गया है । वहाँ प्रत्येक बुद्ध का कोई सन्दर्भ तो नहीं है, परन्तु उसी ग्रन्थ में प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का विवरण देते हुए यह कहा गया है- “ इसमें स्वसमय और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येक बुद्धों के विचारों का संकलन है ।"" चूँकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरणदशा का ही एक भाग माना गया था, इसलिये उपर्युक्त कथन ऋषिभाषित के ऋषियों के परोक्षरूप से "प्रत्येक-बुद्ध" होने का संकेत करता है । प्रत्येक बुद्ध की संज्ञा का स्पष्ट उल्लेख तो हमें ऋषिभाषित के अन्त में प्राप्त होने वाली उस संग्रहणी गाथा में ही मिलता है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है । ऋषिभाषित में कुल ४५ ऋषियों के वचनों का संकलन है : देवनारद, वज्जीपुत्त, असित देवल, अंगिरस भारद्वाज, पुष्पशालपुत्त, वल्कलचीरी, कुम्मापुत्त, केतलीपुत्त, महाकाश्यप, तेतलीपुत्र, मंखलिपुत्त, जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य), मेतेज्ज भयाली, बाहुक, मधुरायण, शौर्यायण, विदुर, वारिषेण कृष्ण, आरियायण, उत्कट, गाथापतिपुत्र तरुण, गर्दभाल ( दगभाल), रामपुत्त, हरिगिरि, अम्बड परिव्राजक, मातङ्ग, वारत्तक, आर्द्रक, वर्द्धमान, वायु, पार्श्व, पिंग, महाशालपुत्र अरुण, ऋषिगिरि, उद्दालक, नारायण ( तारायण), श्रीगिरि, सारिपुत्र, संजय, द्वैपायण ( दीवायण ), इन्द्रनाग ( इंदनाग), सोम, यम, वरुण और वैश्रमण । देवनारद के उपदेश की विशेषता पवित्रता को मुक्ति का आधार मानना और जाने माने अहिंसादि पाँच व्रतों के रूप में शुद्धता की परिभाषा करना है । वज्जीपुत्त मोह को कर्म का मूल स्रोत मानते थे और बीज तथा अंकुर की भाँति जन्म-मरण चक्र की कल्पना करते थे । असित देवल के उपदेश में निवृत्ति और अनासक्ति पर बल है । अंगिरस भारद्वाज अपनी मनोवृत्तियों के निरीक्षण द्वारा पाप कर्म से बचने का उपदेश देते थे । पुष्पशाल पुत्र के उपदेश में भी आचरण की शुद्धता पर ही बल है और अहिंसादि नियमों का विधान है । उनकी मुक्ति की अवधारणा आत्मसाक्षात्कार के रूप में है । वल्कलचीरी के उपदेश का मूलाधार है काम भावना का संयमन और ब्रह्मचर्य का पालन । कुम्मात निराकांक्षी होने का उपदेश देते थे । केतलीपुत्र रेशम के कीड़े की भाँति अपना बन्धन तोड़ कर मुक्त होने की बात करते थे । महाकाश्यप का उपदेश संततिवाद कहा गया है और इन्होंने निर्वाण की उपमा दीपक के शान्त होने से दी है । तेतलीपुत्र जीवन की निराशाओं को ही वैराग्य का प्रेरक तत्त्व मानते थे । मंखलिपुत्त का सुपरिचित उपदेश विश्व की घटनाओं को अपने नियक्रम से घटित होने और यह समझ कर उनसे क्षुब्ध न होने का है । जण्णवक्क लोकैषणा और वित्तैषणा के परित्याग का उपदेश देते थे । मेतेज्ज भयाली भी आत्म विमुक्ति की चर्चा करते थे और इनका दर्शन एक प्रकार का अकारकवाद प्रतीत होता है क्योंकि वे सत् और असत् का कोई कारण नहीं स्वीकार करते थे । बाहुक भी चिन्तन की शुद्धि और निष्कामता का उपदेश देते थे । मधुरायण आत्मा को अपने ही कर्मों का कर्ता भोक्ता स्वीकार करते हुए पाप मार्ग के त्याग द्वारा मुक्ति का उपदेश देते थे । शौर्यायण इन्द्रियजन्य सुख को ही रागद्वेष का कारण स्वीकार करते हुए इन्द्रियों के संयमन का उपदेश देते थे । विदुर के उपदेश में स्वाध्याय, ध्यान और अहिंसक प्रवृत्ति पर बल है । वारिषेण कृष्ण सिद्धि की प्राप्ति के लिये अनावरणीय कर्मों से विरत रहने और अहिंसादि के पालन का उपदेश देते थे । अरियायण १. ससमय पर समय पण्णवय पत्तेयबुद्ध - विविह्त्थभासाभासियाणं पण्हावागरणदसासु णं समवायांग सूत्र ५४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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