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________________ डाँ० अरुणप्रताप सिंह _२२५ जाता है।' जातक की यह कहानी कुछ भिन्नता के साथ महाभारत के मौसलपर्व में दी गई है। ____ ऋषि द्वैपायण के द्वारा द्वारका एवं साथ ही वासुदेव वंश के नाश की कथा जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्पराओं में समान रूप से प्राप्त होती है। अतः इस घटना पर हम सन्देह व्यक्त नहीं कर सकते । महाभारत युद्ध के अंत में द्वारका एवं वासुदेव वंश के नाश का जो भी कारण रहा हो, ऋषि द्वैपायण की सहभागिता उसमें अवश्य रही होगी। पाराशर-पूर्ववणित ऋषियों के समान ऋषि पाराशर भी जैन परम्परा से भिन्न ऋषि के रूप में सूत्रकृतांग में वर्णित हैं। परन्तु सूत्रकृतांग के अतिरिक्त अन्य किसी जैन ग्रन्थ में इनका उल्लेख प्राप्त नहीं होता। बौद्ध साहित्य ऋषि पाराशर का वैदिक परम्परा के एक ऋषि के रूप में उल्लेख करते हैं जो इन्द्रियों के निरोध का उपदेश दिया करते थे। मज्झिमनिकाय के इन्द्रिय भावना नामक सुत्त में इनके उपदेशों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस सुत्त में इन्हें परासरीय कहा गया है । बौद्ध साहित्य एक और परासरीय नामक विद्वान् ब्राह्मण का उल्लेख करते हैं जो राजगृह का निवासी था तथा तीन वेदों में पारंगत था । परासरीय द्वारा बौद्ध संघ में प्रवेश तथा अर्हत् पद प्राप्त करने का उल्लेख है। वैदिक साहित्य में पाराशर के बारे में विस्तार से उल्लेख प्राप्त होता है । महाभारत में इन्हें महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायण का पिता कहा गया है। महाभारत में इनके जो उपदेश संग्रहीत हैं, उनमें मुख्य रूप से इन्द्रिय संयम, क्षमा, धैर्य, सन्तोष आदि मानवीय गुणों के विकास पर बल दिया गया है। पराशर के अनुसार ये गुण ही मनुष्य की मोक्ष प्राप्ति में सहायक बनते हैं । शान्तिपर्व में इनके द्वारा दिया गया स्वकर्म का उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य अपने ही कर्मों को भोगता है, दूसरे के कृत कर्मों को नहीं। हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों साहित्य पराशर को वैदिक परम्परा से सम्बन्धित करते हैं । मज्झिम निकाय के इन्द्रिय भावना सुत्त एवं महाभारत में पाराशर के नाम से जो उपदेश संग्रहीत हैं, उनमें प्रायः समानता है। जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्पराएँ इनसे परिचित हैं। पाराशर वैदिक परम्परा के ऋषि प्रतीत होते हैं जो महाभारत काल के आसपास रहे होंगे। सूत्रकृतांग में वर्णित ऋषियों की पहचान करने का हमने यथासम्भव प्रयास किया। सूत्रकृतांग में जिस प्रकार इन ऋषियों का वर्णन है, उनसे स्पष्ट है कि ये जैनेतर परम्परा से १. पर ३. ४. Pali Proper Names, Vol. I, P. 501 महाभारत, मौसलपर्व, १।१९-२१ मज्झिम निकाय, ३।५।१०, पृ० ६०९ Pali Proper Names, Vol. II, P. 190 महाभारत, आदिपर्व, ११५५, ६३१८४ वही, शान्तिपर्व, २९०१२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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