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________________ डॉ० अरुणप्रताप सिंह २२३ जैन परम्परा के समान बौद्ध परम्परा भी असित देवल से परिचित है। मज्झिम निकाय में अस्सलायण सुत्त नामक एक अलग सुत्त है जिसमें आश्वलायन के उपदेशों को संकलित किया गया है। इस सुत्त में असित देवल को ब्राह्मणों के झूठे अहंकार से दूर होने का उपदेश देते हा प्रस्तत किया गया है। उनके उपदेश का मल सार यह है कि कोई व्यक्ति जाति से नहीं अपितु कर्म से श्रेष्ठ होता है। इन्द्रिय जातक में भी असित देवल का उल्लेख है। इस जातक में असित का नारद ऋषि के साथ वार्तालाप वर्णित है। इसमें यह उल्लेख है कि नारद एक गणिका के प्रेमजाल में फंस गये। इसी सम्बन्ध में असित देवल द्वारा नारद को प्रतिबोधित करने का उपदेश संकलित है। वैदिक परम्परा में असित देवल एक महान् ऋषि के रूप में वर्णित हैं। महाभारत के आदि पर्व में इन्हें महान् तपस्वी कहा गया है। इसी पर्व में महाज्ञानी, हर्ष एवं क्रोध से रहित जैगीषव्य मुनि से समता के विषय में असित देवल का वार्तालाप वर्णित है। जन्मेजय के सर्पसत्र में जिन ऋषियों एवं महात्माओं ने भाग लिया था, उनमें असित देवल का भी नाम आता है। महाभारत के अधिकांश स्थलों में असित देवल नारद के साथ उपस्थित हैं। राजा युधिष्ठिर के अभिषेक काल में भी ये नारद के साथ उपस्थित थे। शान्ति पर्व में ऋषि नारद के साथ प्राणियों की उत्पत्ति एवं विनाश सम्बन्धी प्रश्न पर इनका वार्तालाप वणित है। ये नारद को उपदेश देते हुए कहते हैं कि पुण्य और पापों के क्षय के लिए ज्ञानयोग को साधन बनाना चाहिए। महाभारत में असित देवल एक वृद्ध एवं बुद्धिमान् ऋषि के रूप में वर्णित हैं। जिस प्रकार सूत्रकृतांग में असित देवल को सचित्त जल एवं बीजों का सेवन करते हुए सिद्धि प्राप्त करने वाला कहा गया है, उसी प्रकार महाभारत में भी असित देवल को गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर तपस्या करने वाला कहा गया है। असित देवल को धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, महातपस्वी तथा सबके प्रति समान भाव रखने वाला कहा गया है।" मज्झिम निकाय, २।५।३ Pali Proper Names, Vol. I, P. 210 महाभारत, आदिपर्व, १।१०७ महाभारत, सभापर्व ५३।१० महाभारत, शान्तिपर्व, २७५।२ वही, शल्यपर्व, ५०।१ "धर्मनित्यः शुचिर्दान्तो न्यस्तदण्डो महातपाः । कर्मणा मनसा वाचा समः सर्वेषु जन्तुषु ।। अक्रोधनो महाराज तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः । प्रियाप्रिये तुल्यवृत्तिर्यभवत् समदर्शनः ।। काञ्चने लोष्ठभावे च समदर्शी महातपाः । देवानपूजयन्नित्यमतिथीञ्च द्विजैः सह ।। ब्रह्मचर्यरतो नित्यं सदा धर्मपरायणाः-वही, शल्यपर्व ५०/२-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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