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________________ उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान प्राप्त होता है। पारे में ताम्र, अभ्रक एवं लौहचूर्ण आदि मिलाकर जारण (तापन) करने से भी विभिन्न रसबंध प्राप्त होते हैं । ये रस-बंध ही औषधों में काम आते हैं। मकरध्वज नामक औषध पारद, गंधक और स्वर्ण के परस्पर बंध से प्राप्त होती है। पारद और रसायन कार्य के लिये जहाँ नागार्जुन ने २६ यंत्रों के नाम दिये हैं, वहाँ कल्याणकारक में इससे आधे यंत्रों का भी उल्लेख नहीं है। इससे पता चलता है कि उग्रादित्य पारद-रसायन एवं उपचार के वर्णन में काफी पीछे हैं जबकि वे खनिज एवं रासायनिक पदार्थों के विवरण में आगे हैं। उपसंहार उग्रादित्य का कल्याणकारक ग्रन्थ एक ओर जहाँ यह प्रमाणित करता प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत में उस युग में रसायन विद्या अधिक प्रगति पर थी, वहीं यह, यह भी प्रकट करता है कि दक्षिण और पूर्वी-उत्तरी भारत में ज्ञान विद्या के संप्रासारण की गति मन्द रही है और समतुल्यता में दो-तीन सौ वर्ष का अन्तराल भी सामान्य रहा है। फिर भी, यह ग्रन्थ नागार्जुन और उत्तरवर्ती रसज्ञों के बीच एक कड़ी का काम करता है क्योंकि अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कल्याणकारक के सौ वर्ष बाद के ही पाये जाते हैं। सर्वाधिक ग्रन्थ बारहवीं-तेरहवीं सदी के ही पाये जाते हैं। इनमें कुछ जैनाचार्य-रचित भी हैं। इस विषय पर अभी कोई विशेष कार्य नहीं हुआ है। इस बात की महती आवश्यकता है कि जैनाचार्यों द्वारा रसायन और भौतिक विज्ञानों में योगदान के इतिहास का सर्वेक्षण एवं लेखन किया जावे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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