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________________ डा० नंदलाल जैन (अ) धूप में रखना (ब) रात को चाँदनी में रखना (स) अग्नि में तपाना (द) कपड़े से छानना (य) कतकफल या अलसी का तेल मिलाना । आधुनिक व्याख्यानुसार, सभी विधियों से जल में विद्यमान विलेय लवणों का स्कंदन या अवक्षेपण होता है। अग्नि या धूप के योग से कीटाणुनाश भी होता है। ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार के जलों के गुण-दोष बताये गये हैं पर इनके कारण और निवारण की प्रक्रिया की व्याख्या नहीं दी गई है। वस्तुतः जल के संरचनात्मक एवं शोधन-रसायन का विकास उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हो सका। (ब) अन्य पदार्थों के गुण : जल के अतिरिक्त अनेक ठोस खाद्यों, शाक-भाजी एवं तरल पेयों का भी ग्रन्थ में गुण विवरण दिया गया है। इनमें धान, दालें, तिल, गेहूँ और जौ आदि के त्रिदोषाधारित विवरण दिये गये हैं। विभिन्न प्रकार के जमींकदों को पुष्टिकर एवं विषनाशक बताया गया है।' पालक, बथुआ आदि पित्तविकार या अम्लता को दूर करते हैं। परवल अम्लता, क्षारता, कृमि एवं चर्मरोगों को दूर करती है। विभिन्न प्रकार के मसाले वात एवं कफ नाशक हैं (संभवतः उभयधर्मी ऐल्केलाइटों के कारण) । अदरख, कालीमिर्च, पीपरामूल, प्याज, लहसुन अम्लता एवं क्षारता को नाशकर जठराग्नि या पाचन शक्ति को बढ़ाते हैं। ये उष्ण अर्थात् उष्मादायी होते हैं जिनसे विकार पचते हैं। विभिन्न खट्टे फल (उभयधर्मी अम्लों के कारण) वातनाशक एवं मलशोधक होते हैं। किशमिश, केला, महुआ, सिंघाड़ा एवं नरियल गरिष्ठ एवं कफ-बर्धी होते हैं। (संभवतः किशमिश में ये गुण नहों पाये जाते हैं ?)। दूध आठ प्रकार के प्राणि-स्रोतों से प्राप्त होता है। यह विभिन्न प्रकार के वनस्पतिज खाद्य-पदार्थों के जोवरासायनिक परिपाक का परिणाम है। यह हितकर और पुष्टिकर होता है। धारोष्ण दूध अमृत है, थकावट दूर करता है। गरम दूध एवं उष्ण-शीतलित (आज का पेस्चुराइज्ड) दूध अनेक (कृमि) रोगों में लाभकारी है। यह आँख की रोशनी (विटामिन ए के कारण) बनाता है और आयु-वर्धक (खनिजों के कारण) है। दूध से उत्पन्न दही अम्लीय होता है, पाचनशक्ति बढ़ाता है । यह विषहर, वृष्य एवं मलावरोधक है । मट्ठा खट्टा एवं शीघ्र पचनशील है। यह भी पाचनशक्ति बढ़ाता है और मल-मूत्रशोधक है। मक्खन एवं घृत भी खट्टेमीठे रसायन हैं। इनमें शरीर के तेज, बल व आयुवर्धक पदार्थ होते हैं। इनमें भुंजे हुए मसालों से छौंके और बनाये भोज्य बलवर्धक होते हैं। सिरका और कांजी खट्टी होती है और वातविकार (अम्लता) को दूर करती है। विभिन्न तेल केशवर्धक, तेजवर्धक एवं कृमिनाशक होते हैं। मूत्र भी दूध के समान आठ प्रकार के होते हैं। ये तीक्ष्ण, कडुए एवं उष्मादायी होते हैं। ये कृमिनाशक एवं अम्लता-क्षारता को दूर करते हैं। अनेक क्षारों में भी मूत्र के गुण होते हैं। इन मूत्रों का उपयोग औषध एवं अनुपान में किया जाता है। १. कल्याणकारक, पृ० ५७. २. वही, पृ० ७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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