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________________ १८६ डा० नंदलाल जैन अधिक प्रतीत होती है । उत्तराध्ययन में ३६ पृथ्वी-पदार्थों का उल्लेख है। इसके नामों का से बहुत कम साम्य है । वर्गीकरण और नामकरण की विधि भी भिन्न है । पर इससे एक तथ्य प्रकट होता है कि पारे के लवणों का ज्ञान उन दिनों हो चुका था । कौटिल्य के बाद चरक और सुश्रुत का समय आता है । इन औषध ग्रन्थों में पर्याप्त रासायनिक सामग्री मिलती है । यद्यपि इन ग्रन्थों के मूल लेखकों के समय के विषय में काफी मतभेद है, पर यह सामान्य मान्यता है कि 'चरक' और 'सुश्रुत' शब्द एक परंपरा को निरूपित करते हैं जो महावीर-युग तक मानी जाती है। परंतु इन ग्रन्थों के अनुशीलन से अधिकांश विद्वान् यह मानते हैं कि ये ग्रन्थ ईसापूर्व दूसरी सदी में लिखे गये थे । इनका संस्कार भी किया गया है । इसीलिये इन ग्रन्थों में पर्याप्त विकसित रासायनिक जानकारी मिलती है । इनमें प्राकृतिक एवं पार्थिव खनिजों के १३३ नाम दिये हैं। इसमें छह धातु, पांच लवण, पांच खनिज, अम्ल एवं क्षार आदि के अतिरिक्त धातु मारण एवं नौ प्रकार के स्रोतों से प्राप्त चौरासी प्रकार के किण्वित पेयों का नाम भी है। गंधक और पारद के साथ इन तत्वों के भी नाम बहुलता से पाये गये हैं ।" यह साहित्य मुख्यतः आयुर्वेदिक है पर इसमें भूतविद्या और मंत्रविद्या का भी रोगशमन हेतु उल्लेख है । चूंकि औषध का अर्थ रस धारक एवं रोगनिवारक है, अतः इसे रसायन कहा गया है । फलतः भारतीय रसायन का विकास आयुर्वेद के माध्यम से हुआ, यह स्पष्ट है। खनिजों के उपचार से धातुयें और उनके शोधन तथा उपचार से रंग-बिरंगे यौगिक सम्मिश्र बनने से चामत्कारिता का भाव स्वाभाविक ही था इसके कारण रसायन को कीमियागिरी भी कहा जाने लगा । उपरोक्त ग्रन्थों के बाद अगले चार-पांच सौ वर्षों तक पुनः कोई विशिष्ट साहित्य उपलब्ध नहीं होता । पर यहाँ भी कुन्दकुन्द का धार्मिक साहित्य हमें १००-२०० ई० के सामान्य रासायनिक ज्ञान की धारणा बनाने में सहायक है । जैन ने बताया है कि कुन्दकुन्द-युग में परमाणुवाद, धातु क्रिया और शोधन, रस-विद्या, विष विद्या प्रचलित थी । वायु की ज्वलन क्रिया में अनिवार्यता, जल की शोधन क्षमता तथा अनेक पदार्थों की जल-अविलेयता तथा फिटकरी एवं उत्तापन द्वारा जलशोधन की क्रियाओं का विशेष उल्लेख है । जैनाचार्य समंतभद्र (चौथी - पांचवीं सदी) के सिद्धान्त रसायनकल्प, पुष्पायुर्वेद तथा अष्टांगसंग्रह का उल्लेख अनेक निर्देशों में आता है, परन्तु ये ग्रन्थ पूर्णतः उपलब्ध नहीं हैं । इनके विषय इनके उल्लेखों से अनुमित किये जा सकते हैं। पाँचवींछठवीं सदी के पूज्यपाद देवनन्दि के कल्याणकारक, शालक्यतंत्र और वैद्यामृत नामक ग्रन्थों का उल्लेख उग्रादित्याचार्य, मुम्मट मुनि एवं वसवराज ने किया है, लेकिन ये ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं हैं । उत्तरवर्ती सदी के सिद्ध नागार्जुन, जो पूज्यपाद के भांजे थे, ने भी अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । ये नागार्जुन वलभी वाचनाकार नागार्जुन के काफी बाद में हुए हैं। बौद्धों में भी नागार्जुन हुए हैं । १. उत्तराध्ययनसूत्र, पृ० ३९०-९१. २. उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, शारदा मंदिर, काशी, १९६९, पृ० ११. ३. ( अ ) सत्यप्रकाश, वैज्ञानिक विकास की भारतीय परंपरा, बि० रा० पटना, १९५४, पृ० २४३; ४. ५. (ब) आचारांग सूत्र, पृ० ६२ जैन, एन० एल०; सायंटिफिक कन्टेन्ट्स आफ अष्टपाहुड; संस्कृत वि० संगोष्ठी, काशी, १९८१. उग्रादित्याचार्य; कल्याणकारक, सखाराम, नेमचन्द्र ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९४०; भूमिका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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