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________________ उग्रादित्याचार्य का रसायन के क्षेत्र में योगदान डा० नंदलाल जैन रसायन के उद्भव एवं विकास का श्रेय, रसोईघर, रसशाला और रसायनशाला को दिया जा सकता है। रसोईघरों का इतिहास अग्नि के आविर्भाव के साथ प्रारंभ हुआ और यह अतिप्राचीन है। अग्नि का योग खाद्य पदार्थों को सुपाच्य और रसायन बनाता है। भोजन एवं जलवायु के असन्तुलन से होने वाली विकृतियों को दूर कर रसशालायें मानव को आयुष्य-ज्ञानी और भैषज-ज्ञानी के रूप में स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन प्रदान करती हैं। रसायनशालायें जीवन को भौतिक सुखसुविधाओं से सज्जित कर समृद्धिमय बनाती हैं। वस्तुतः आधुनिक रसायन का विकास रसशालाओं से ही हुआ है। प्रारंभ में इनमें प्राकृतिक वनस्पति एवं खनिज पदार्थों तथा पारद आदि तत्वों व यौगिकों से स्वस्थ्यकर यौगिक बनाये जाते रहे हैं। यही नहीं, कालान्तर में पारद एवं अन्य धातुओं को स्वर्ण में परिणत करने के लिये पारस-पत्थर या प्रक्रियाओं की खोज तथा इह जीवन में अमरत्व प्राप्त करने की लालसा की पूर्ति इनके अन्यतम उद्देश्य रहे हैं। यद्यपि मानव इन दोनों ही उद्देश्यों को पाने में असमर्थ रहा और आज भी इस दिशा में प्रयत्नशील है, लेकिन इस प्रयत्न में पूर्व और पश्चिम के वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार की भौतिक एवं रासायनिक विधियों का विकास किया। इस विकास में पूज्यपाद, समन्तभद्र, उग्रादित्याचार्य एवं अनेक जैनाचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान है। ___ डा० रे' ने भारतीय रसायन के इतिहास को प्रागैतिहासिक (ई० पू० ४०००-१५००), आयुर्वेदिक एवं वैदिक (१५०० ई० पू० से ८०० ई०), संक्रमण एवं तांत्रिक (८००-१३०० ई०) एवं औषध-रसायन (१३००-१६०० ई०) युगों के नाम से चार चरणों में विभाजित किया है। सिन्धु घाटी सभ्यता के युग में अनेक प्राकृतिक खनिजों एवं ताम्र, स्वर्ण, रजत एवं कांस्य धातुओं तथा कुछ कलाओं का पता चलता है जिनमें रासायनिक क्रियाओं का उपयोग होता है। वैदिक युग में छह धातुओं तथा अनेक सुराओं एवं पेयों का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में तो देववाद एवं औषधशास्त्र के माध्यम से रसायन के अनेक प्रारंभिक और कुछ विकसित रूप मिलते हैं। इसमें रसायन से संबंधित विष विद्या, रसायन विद्या एवं वाजीकरण विद्या के अनेक उल्लेख हैं। प्राचीन जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक से ज्ञात होता है कि अनेक औषधों और धूम्रों का प्रयोग चल पड़ा था। इसी युग में भारत में भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत से संबंधित अनेक १. रे, पो०; हिस्ट्री आव केमिस्ट्री इन एन्सियन्ट एण्ड मेडोवल इन्डिया, इण्डियन केमिकल सोसायटी, कलकत्ता, १९५६, पृ० ११. २. साध्वी, चंदना (संपा०); उत्तराध्ययन सूत्र, सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, पु० ७२, पृ०, १४८ । ३. आ० शय्यंभवः दसवेमालिय (सं० मुनि नथमल), जैन विश्वभारती, लाडनूं, १९७४, पृ० ७०, ८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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