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________________ गुजरात से प्राप्त कुछ महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिमायें सुरक्षित रख रखाव हेतु अपार धन व्यय किया गया है। जैन धर्म का विकास स्वतन्त्र रूप में हुआ । इसने प्राचीन धरोहरों को आज भी सुरक्षित रखा है। सोलंकी युग में निर्मित प्रथम कृति के अतिरिक्त समस्त नमूने व्यक्तिगत रूपांकन की सहजता एवं ह्रास के द्योतक हैं। इनका प्रतिरूपण मोहक नहीं है, किन्तु प्रत्येक नमूने १२ उत्कीर्ण तिथियुक्त लेख धातु प्रतिमा शिल्प में हुए कलात्मक ह्रास के विभिन्न चरणों के साक्षी हैं । परवर्ती मध्यकाल में गुजरात में धातु कलाकृतियों के सर्जन हेतु पीतल का उपयोग होने लगा तथा इसका प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया था क्योंकि यह स्वर्ण की भाँति चमकीला होता था । इस युग में मुसलमान शासकों के काल में कला गतिविधियों ने एक नवीन मोड़ लिया । धातुकर्मियों ने अधिक विश्वसनीय तकनीक एवं स्वतंत्र दृष्टिकोण अपना लिया था, किन्तु क्रमशः कला चेतना में सादगी एवं ह्रास में वृद्धि होती रही । मुगल शैली से प्रभावित होकर यह क्रमशः एक नवीन अनुकरणजन्य शैली में परिवर्तित होकर प्रतिमाएँ अत्यधिक भद्दी एवं कृत्रिम हो गयी एवं अन्ततोगत्वा धातु शिल्प अवनति के पथ पर अग्रसर हो गया । अभिलेख पार्श्वनाथ २. प्रतिमा पंचतीर्थी ३. पद्मावती १. २३ ४. Jain Education International १७७ संवत् १५०३ वर्षे माघ" परम्परा में प्रचलित है ) भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, उत्खनन शाखा - २ नई दिल्ली - ११०००३ महावीर का चतुर्विंशतिपट्ट "संवत् १२९० वर्षे माघशुदि ५ शुक्रे श्रे० वहपाल श्रे० ० जम ( ? ) जमदेवाभ्यां श्रेयार्थे पुत्र साचदेवेन भार्तृ (तृ) पूनसिंह समेतेन चतुर्विंशतिपट्टः कारितः । प्रतिष्ठितं बृहद्गच्छीयैः श्रीशालिप्रभसूरिभिः । " प्रणमति ( या प्राणमंति प्रयोग दिगम्बर सं० १५२५ वै० शु० ३ गुरौ श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे भ० श्रीसकलकीर्ति तत्पट्टे भ० श्रीविमलेन्द्रकीर्तिभिः श्रीशांतिनाथबिम्बं प्रतिष्ठितं हूंबडज्ञातीय भ० करमसी भा० करमादे सु० जइता भा० जइतलदे स (सु० ) शंका | संवत् १६६३ वर्षे माघमासे कृष्णापक्षे प्रतिपदायां श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक धर्मकीर्तिगुरुस्तत्पट्टे भट्टारक प प्र० श्री उपदेसात् नागणपुरीणो सुखानदं भार्या नित्यं प्रणमति ॥ भटारक ४०५० श्री श्री सुखानन्दचार्याणामुपदेसा (शा) त् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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