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________________ विमलसूरिकृत पउमचरिय में प्रतिमाविज्ञान-परक सामग्री डा० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी एवं डा० कमल गिरि जैन दर्शन में प्रारम्भ से ही जनभावना के सम्मान की वृत्ति रही है। इसी कारण अन्य भारतीय धर्मों के देवताओं को जैन देवविभाव में औदार्यपूर्वक प्रवेश देकर सम्माननीय स्थान दिया गया। राम और कृष्ण जनमानस से जुड़े सर्वाधिक लोकप्रिय पात्र रहे हैं जिनके विस्तृत उल्लेख क्रमशः रामायण और महाभारत में हैं। इन महाकाव्यों के चरित्र नायक राम और कृष्ण की जनप्रियता के कारण ही ई० शती के प्रारम्भ या कुछ पूर्व में इन्हें जैन देवमण्डल में स्थान मिला। पौराणिक दृष्टि से राम के पूर्ववर्ती होने के बाद भी जैन परम्परा में राम की अपेक्षा कृष्ण के उल्लेख प्राचीन हैं। उतराध्ययनसूत्र, अन्तकृतदशाः एवं ज्ञाताधर्मकथांग जैसे प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में वासुदेव से सन्दभित विभिन्न प्रसंग वणित हैं । जेन परम्परा में राम का प्रारम्भिक और साथ ही विस्तृत उल्लेख नागेन्द्रकुल के ( श्वेताम्बर ) विमलसूरिकृत पउमचरिय (४७३ ई०) में हुआ है।' रामायण के तीनों प्रमुख पात्रों, राम, लक्ष्मण और रावण ( दशानन ), को जैन देवमण्डल में लगभग ५वीं शती ई० में ६३ शलाकापुरुषों की सूची में क्रमशः आठवें, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के रूप में सम्मिलित किया गया। पउमरिय में उल्लेख है कि सर्वप्रथम महावीर ने रामकथा का वर्णन किया जिसे कालान्तर में साधुओं ने धारण किया; विमलसूरि ने उसो कथा को अधिक विस्तार तथा स्पष्टता के साथ गाथाओं में निबद्ध किया । पउमचरिय में जैन प्रतिमाविज्ञान से सम्बन्धित प्रचुर सामग्री भी है जिसका अध्ययन यहां उद्दीष्ट है। यद्यपि पउमचरिय के आधार पर सांस्कृतिक एवं भौगोलिक अध्ययन के प्रयास हुए हैं, १. पउमचरिय में राम का मुख्यतः पद्म और कहीं-कहीं राम (७८.३५, ४१, ४२), राघव (१.८८; ३९.१२६) एवं हलधर (३५.२२; ३९.२०,३१) नामों से भी उल्लेख हुआ है। पउमरिय के पश्चात् जैन परम्परा में रामकथा से सम्बन्धित लिखे गए ग्रन्थों में संघदासकृत वसुदेवहिण्डो (ल० ६०९ ई०), रविषेणकृत पद्मपुराण ( ६७८ ई० ), शीलाचार्य कृत चउपन्नमहापुरुसरिय ( ल० ८वीं शती ई० ), गुणभद्रकृत उत्तरपुराण ( ल० ९वीं शती ई०), पुष्पदन्तकृत महापुराण ( २६५ ई० ) एवं हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (१२वीं शती ई० का उत्तरार्द्ध) मुख्य हैं। २. ६३ शलका-पुरुषों की सूची सर्वप्रथम पउमचरिय (५.१४५-५६) में ही मिलती है । ३. यह प्रचलित किंवदन्ती प्रतीत होती है । पउमरिय १.९० (सं० एच० जेकोबो एवं मुनि पुण्यविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, ग्रन्थांक-६, वाराणसी, १९६२)। ४. चन्द्र, के० आर०, ए क्रिटिकल स्टडी ऑव पउमचरिय, वैशाली, १९७०; मिश्रा, कामताप्रसाद पउम चरियम् का भोगोलिक अध्ययन पी-एच० डी० थीसिस (अप्रकाशित), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, १९८०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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