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________________ १४० अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल ही महावीराचार्य की कृति के रूप में उद्धृत किया। षट्त्रिंशिका का महावीराचार्य की कृति अथवा अन्य किसी रूप में कोई भी उल्लेख शोध प्रबन्ध में नहीं है। १९७४ में राधाचरन गुप्त ने अग्रवाल के लेख' के Digest of Indological Studies में प्रकाशित सारांश (Abstract) के आधार पर निम्न उल्लेख किया था। 'The other is Sattrimsika which is said to be devoted to Algebra' उन्होंने कृति को स्वयं न देखने का स्पष्ट उल्लेख किया है। ज्योति प्रसाद जैन, नेमिचन्द्र जैन शास्त्री एवं परमानन्द जैन आदि विद्वानों ने इस कृति का अपनी कृतियों में कोई उल्लेख नहीं किया है। गणित इतिहास की पुस्तकों में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता। प्रतियों का विवरण एवं ग्रन्थ में निहित गणित :-देश के विविध शास्त्र भण्डारों में यद्यपि षत्रिंशिका की अनेक प्रतियाँ विद्यमान हैं तथापि उनका उल्लेख षट्त्रिंशिका के रूप में १-२ स्थानों पर ही है । ग्रन्थ के प्रारम्भ, मध्य की पुष्पिकाओं एवं विषयवस्तु के आधार पर ये प्रतियाँ प्रथम दृष्टि से सूचीकारों को गणितसारसंग्रह को अपूर्ण प्रति प्रतीत होती है । फलतः उन्होंने इसकी प्रतियों की गणितसार संग्रह की अपूर्ण प्रति के रूप में ही सूचीबद्ध किया है। कांरजा में संग्रहीत २ ग्रन्थों के नाम “छत्तीसी गणित" एवं षट्त्रिंशतिका" है। वस्तुतः ये दोनों षट्त्रिंशिका ही हैं। अन्य कई स्थानों पर गणितसारसंग्रह की अपूर्ण प्रतियों के होने की सूचना है वस्तुतः प्रतियों के देखे बिना यह कहना संभव नहीं है कि वे वास्तव में गणितसारसंग्रह की अपूर्ण प्रतियाँ हैं अथवा षट्त्रिंशिका की। इस भ्रान्ति की सीमा का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सेन ने गणितसारसंग्रह की पाण्डुलिपियों के संदर्भ में सूचना संकलित करते हुए गणितसारसंग्रह का निम्न विवरण: दिया है। MAHAVIRACARYA (C. 850 A. D.) Ganita Sara Samgraha, C. 850 A. D. AJaina work on Arithematic in 5 Chapters viz. (i) Parikarmavidhi, (ii) Kalásavarņa vyavahāra, (iii) Prakirņaka vyavahāra, (iv) Trairāśika vyavahāra, (v) vargasamkalitānayana sūtra and Ghanasaņkalitānayana sūtra. स्पष्टतः उपरोक्त विवरण अशुद्ध है। वास्तव में यह विवरण षट्त्रिंशिका का है। गणितसार संग्रह में उपरोक्त प्रपत्र ४ के अतिरिक्त ४ और व्यवहार है जो क्रमशः मिश्रक व्यवहार, क्षेत्र गणित व्यवहार, खात व्यवहार एवं छाया व्यवहार है एवं उपरोक्त विवरण में से पाँचवा व्यवहार नहीं है। १. Digest of Indological Studies, Vol-III, Port-2, Dec. 1965, PP. 622-623. २. देखें, सं०-२-I, पृ० १७ । ३. शीघ्र प्रकाश्य लेख-महावीराचार्य, व्यक्तित्व एवं कृतित्व । ४. देखें, सं०-९-१, पृ० १३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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