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________________ विंशिका या षट्त्रिंशतिका एक अध्ययन अनुपम जैन* एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल** षट्त्रिशिका या षट्त्रिंशतिका नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ( १०वीं श० ई०) के प्रसिद्ध ग्रन्थ " त्रिलोकसार" के टीकाकार माधवचन्द्र त्रैविद्य (१०-११वीं० श० ई०) की एक अज्ञात गणितीय कृति है । वस्तुतः लेखक ने इस कृति का प्रणयन प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ महावीराचार्य (८५० ई० लगभग) कृत गणितसार संग्रह के आधार पर उसकी सामग्री के कुछ अंश में कतिपय नवीन सूत्र जोड़कर की है । प्रस्तुत लेख में हम इसी कृति के सन्दर्भ में चर्चा करेंगे। १ ग्रन्थकार माधव चन्द्र त्रैवैद्य का परिचय - षट्त्रिंशिका या षट्त्रिंशतिका की पाण्डुलिपियों में आया निम्न उल्लेख इस कृति को माधवचन्द्र की रचना बताता है । श्री वीतरागाय नमः ।छ। छत्तीस मेतेन सकल ८, भिन्न ८, भिन्न जाति ६, प्रकीर्णक १०, त्रैराशिक ४ इंत्ता छत्तीस में बुटु वीराचार्यरू पेल्हगणित वनु माधवचन्द्र त्रैविद्याचार्यारू शोध सिदरागि शोध्यसार संग्रहमे निसिकोंबुटु ।' इससे स्पष्ट है कि इसकी रचना माधवचन्द्र त्रैविद्य ने विद्वान् (महा) वीराचार्य के ( गणित ) सार संग्रह को शोध कर शोध कर की थी । जैन ग्रन्थों में माधवचन्द्र नाम के १०-११ व्यक्तियों के उल्लेख मिलते हैं । ९वीं से १३वीं शती ई० के मध्य हमें तीन ऐसे माधवचन्द्र मिलते हैं, जिसके साथ त्रैविद्य की उपाधि जुड़ी है । प्राचीन काल में सिद्धान्त, व्याकरण एवं न्याय इन तीनों विषयों पर समान अधिकार रखने वाले को विद्य की उपाधि दी जाती थी । प्रथम माधव चन्द्र त्रैविद्य का उल्लेख करते हुए नेमिचन्द्र शास्त्रो ने लिखा है कि "प्रथम माधव चन्द्र त्रैविद्य वे हैं जिनके शिष्य नाग चन्द्रदेव के पुत्र मादेय सेन बोबॅको तोलपुरुष विक्रम शान्तर की रानी पालियबक ने अपनी माता की स्मृति में निर्मापित पालियक्क बसति के लिए दान दिया था । 2 Luice Rice ने इस प्रकरण से सम्बद्ध अभिलेख का समय लगभग ९५० ई० अनुमानित किया है किन्तु स्वयं तोलपुरुष विक्रम शान्तर का शिलालेख सन् ८९७ ई० का प्राप्त है । अतः यह माधव चन्द्र त्रैविद्य लगभग ९०० ई. में हुये होंगे ।" * व्याख्याता गणित विभाग, शासकीय महाविद्यालय, ब्यावरा (राजगढ़) ( भारत ) ** रीडर, गणित विभाग, मेडूगरी विश्वविद्यालय, मेडूगरी ( नाईजीरिया) । १. षट्त्रिंशिका - जयपुर पाण्डुलिपि - पत्र सं० ३९ । षट्त्रंशतिका - कारंजा " - पत्र सं० ४६ | २. देखें सन्दर्भ -- ६, II, पृ० ३४, पृ० २८८. ३. एपिग्राफी कर्णाटिका, भाग-८, नागर — ४५. ४. एपिग्राफो कर्णाटिका, भाग-८, नागर — ६०. १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaipelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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