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________________ बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास ११०३] की रचना की ।' वि० सं० ११८७ एवं वि० सं० १२०८ के अभिलेखों में वडगच्छीय चक्रेश्वरसूरि को वर्धमानसूरि का शिष्य कहा गया है। इसी प्रकार वि० सं० १२१४ के वडगच्छ से ही सम्बन्धित एक अभिलेख में वडगच्छीय परमानन्दसूरि के गुरु का नाम चक्रेश्वरसूरि और दादागुरु का नाम वर्धमानसूरि उल्लिखित है। इसी प्रकार वडगच्छीय चकेश्वरसूरि के गुरु और परमानन्दसूरि के दादागुरु वर्धमानसूरि और अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि को अभिन्न माना जा सकता है। जहाँ तक गच्छ सम्बन्धी समस्या का प्रश्न है, उसका समाधान यह है कि चन्द्रगच्छ और वडगच्छ दोनों का मूल एक होने से इस समय तक आचार्यों में परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं दिखाई देती । गच्छीयप्रतिस्पर्धा के युग में भी एक गच्छ के आचार्य दूसरे गच्छ के आचार्य के शिष्यों को विद्याध्ययन कराना अपारम्परिक नहीं समझते थे । अतः बृहद्गच्छीय चक्रेश्वरसूरि एवं परमानन्दसूरि के गुरु चन्द्रगच्छीय वर्धमानसूरि हों तो यह तथ्य प्रतिकूल नहीं लगता। इस प्रकार चन्द्रगच्छ और खरतरगच्छ के आचार्यों का जो विद्यावंशवृक्ष बनता है, वह इस प्रकार है : अब हम वडगच्छीय वंशावली और पूर्वोक्त चन्द्र गच्छीय वंशावली को परस्पर समायोजित करते हैं, उससे जो विद्यावंशवृक्ष निर्मित होता है, वह इस प्रकार है अब इस तालिका के बृहद्गच्छीय प्रमुख आचार्यों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य बातों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जायेगा। नेमिचन्द्रसूरि-जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वडगच्छ के उल्लेख वाली प्राचीनतम १. वही, पृ० १४ । २. सं[वत्] ११८७ [वर्षे] फागु[ल्गु]ण वदि ४ सोमे रूद्रसिणवाडास्थानीय प्राग्वाटवंसा[शान्वये श्रे० साहिलसंताने पलाद्वंदा [?] श्र० पासल संतणाग देवचंद्र आसधर आंबा अंबकमार श्रीकुमार लोयण प्रकृति श्वासिणि शांतीय रामति गुणसिरि प्रडूहि तथा पल्लडीवास्तव्य अंबदेवप्रभृतिसमस्तश्रावकश्राविकासमुदायेन अर्बुदचैत्यतीर्थे श्रीरि[ऋषभदेवविबं निःश्रेयसे कारितं बृहद्गच्छीय श्रीसंविज्ञविहारि श्रीवर्धमानसूरिपादपद्मोप[सेवि] श्रीचक्रेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठितं ।। मुनि जयन्तविजय-संपा० अर्बुद प्राचीन जैन लेख सन्दोह, लेखाङ्क ११४ । ॐ । संवत् १२०८ फागुणसुदि १० रवौ श्रीबृहद्गच्छीयसंविज्ञविहारी[रि]श्रीवर्धमानसूरिशिष्यैः श्रीचक्रेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठितं प्राग्वाट वंशीय......। मुनि विशाल विजय, संपा० श्रीआरासणातीर्थ, लेखाङ्क ११ । ३. संवत् १२१४ फाल्गुण वदि 'शुक्रवारे श्रीबृहदगच्छोद्भवसंविग्नविहारि श्रीवर्धमानसूरीयश्रीचक्रेश्वरसूरि शिष्य""श्रीपरमानन्दसूरिसमेतैः......"प्रतिष्टितं । मुनि विशाल विजय, वही, लेखाङ्क १४ । ४. देखिये, तालिका न० ३ । ५. तालिका न०४। ६. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य मुनि पुण्य विजय द्वारा सम्पादित आख्यानकमणिकोष की प्रस्तावना, पृ० ६-८; देसाई, मोहनलाल दलीचन्द, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ० २१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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