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________________ श्रमण ज्ञान मीमांसा नयवाद और अनेकान्तवाद नयवाद और अनेकान्तवाद के इतिहास आदि को भी हम उपर्युक्त पुस्तकों में स्पष्ट कर चुके हैं । अतः यहाँ उसे भी नहीं प्रस्तुत करते । मात्र इतना कहना चाहते हैं कि जैन-बौद्धधर्म ने इन दोनों सिद्धान्तों को प्रारम्भ से ही अपनाया है। दोनों धर्मों के आगमों और उत्तरकालीन ग्रंथों में इनका उपयोग दार्शनिकों ने भलीभाँति किया है। इतना अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने इसे अपनी मूल भित्ति मान ली जबकि बौद्ध दार्शनिक इसमें पीछे रहे । बौद्धधर्म में तत्त्व का विचार दो दृष्टियों से किया गया है-परमार्थ और प्रज्ञप्त्यर्थ । परमार्थ तत्त्व को अविपरीत तथा मूल स्वभाव माना गया है और प्रज्ञप्त्यर्थ वस्तु का व्यावहारिक रूप है जिसे साधारण व्यक्ति अपने ज्ञान का विषय बनाते हैं। इनको क्रमशः पारमार्थिक और सांवृतिक भी कहा गया है।' जैनदर्शन का द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अथवा निश्चयनय और व्यवहारनय अथवा पारमार्थिक और व्यावहारिक नय लगभग समान हैं। नयों की भेद दृष्टि जैनों की अपनी है। यह बौद्धधर्म में नहीं दिखतो। अनेकान्तवाद भी बौद्धधर्म में मिलता है । विभज्यवाद और चतुष्कोटिक सत्य इसी के नामान्तर हैं । अन्तर यह है कि उत्तरकाल में बौद्धाचार्यों ने विभज्यवाद की मूल भावना छोड़ दी और वे एकान्तवाद की ओर अधिक झुकते गये । जबकि जैन दार्शनिकों ने इसे अपने सिद्धान्त का आधार बनाया । इसलिए जैन साहित्य में इस पर चिन्तन भी बहुत हुआ। बौद्धधर्म का मध्यममार्ग मूलतः आचार विषयक था । उसी का आगे विकास हुआ। जैनधर्म ने अनेकान्तवाद का प्रयोग आचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में किया । विभज्जवाद और अनेकान्तवाद ___ सृष्टि का हर सर्जक तत्त्व भिन्न है और वह अपने विविध रूपों को समाहित किये हुए हैं। प्रेक्षक और चिन्तक उन रूपों में से कुछ रूपों को देख-समझ लेता है और कुछ अनबुझी पहेली से अदृश्य और अचिन्तित बने रहते हैं । हर युग में दार्शनिकों ने इस विश्वसत्य को समझा है और उसे अपने दृष्टिकोण से उपस्थित करने का प्रयत्न किया है। इसी दृष्टिकोण को बुद्ध ने विभज्जवाद कहा और महावीर ने अनेकान्तवाद । प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। न वह सर्वथा सत् ही है और न वह सर्वथा असत् ही है। न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनित्य ही है। किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से वस्तु असत् है, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है । अतः सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य आदि प्रकार के एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य इत्यादि रूप होना अनेकान्त है और अनेकान्तात्मक १. अभिधम्मत्थ संगहो, १. २ : मिलिन्द प्रश्न और उसके पूर्व संयुक्त निकाय आदि ग्रन्थों में भी इसका वर्णन मिलता है। २. विस्तार के लिए देखिये, लेखक की पुस्तक -जैनदर्शन और संस्कृति का इतिहास, पृ. २२१-२५०; विभज्जवाद और अनेकान्तवाद, तुलसीप्रज्ञा, १९७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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