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________________ प्रो० भागचन्द्र जैन क्या ? उन्हें तो हेयोपादेय ज्ञान होना चाहिए । कोटसंख्या परिज्ञान आदि की उपयोगिता मानी जाय तो अभ्यास से तथागत के अनुष्ठेय वस्तु का साक्षात्करण पर भी विचार किया जा सकता है । तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्या परिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥' । परन्तु जैन कहते हैं तथागत के अनुष्ठेय वस्तु के साक्षात्करण में प्रत्यक्ष-अनुमान आदि प्रमाण व्यर्थ सिद्ध होते हैं । यदि इसमें प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाय तो अनुष्ठान व्यर्थ सिद्ध हो जाता है क्योंकि प्रमाण विषय का साक्षात्कार करना ही अनुष्ठान का प्रयोजन है और जब प्रत्यक्ष है हो तो साक्षात्करणत्व में अनुष्ठान का क्या प्रयोजन ? अनुमान इसलिए नहीं कि प्रतिबन्धग्रहण के बिना अनुष्ठान दर्शन संभव नहीं। चतुरार्यसत्य का ज्ञाता होने से बुद्ध भी 'अशेषवादो' कहे जा सकते हैं हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥३ जैनाचार्य पुनः उत्तर देते हुए कहते हैं कि कीटसंख्यापरिज्ञान चतुसत्य के व्याकरण में उपयोगी है। यदि उसे न माना जाय तो चतूसत्य का उपदेश ही असंभव हो जायगा । कूप को देखे बिना कूप में जल नहीं है, यह कैसे कहा जा सकता है। यदि कीटसंख्यापरिज्ञान को उपयोगी नहीं मानते तो भिक्षुसंख्यापरिज्ञान की भो क्या आवश्यकता ? कोटादि चेतनवर्ग का ज्ञान पुरुषार्थकर है । अन्यथा बुद्ध को जगत् हितैषी कैसे कहा जायगा ।" पुरुषार्थकर यदि न माना जाय तो उपदेश व्यर्थ हो जायगा निरवशेष ज्ञान न होने से | __ अनुमान के अभ्यास से तत्वदर्शन नहीं हो सकता अन्यथा रसादि के अभ्यास से अन्धा भी रूपदर्शन कर सकेगा और फिर अनुमान को ही मानते हैं तो कषादि में सर्वज्ञता क्यों नहीं मानी जा सकती। इसलिए "प्रमाणं नापरः" कथन ठीक नहीं । इस प्रकार धर्मज्ञ ही नहीं बल्कि सर्वज्ञ की सिद्धि अपरिहार्य है। शक्ति कल्पना वस्तु के सामर्थ्य को शक्ति कहा जाता है। यह सामर्थ्य क्या-कैसी है, यह मतभेद का विषय है। कार्यकारण की व्यवस्था में शक्ति को कल्पना निहित है। अद्वैतवादी कार्यकारण को सांवृतिक सत्य मानते हैं और बाह्यार्थवादो उसे पारमार्थिक सत्य कहते हैं। माध्यमिक संप्रदाय पदार्थों को निःस्वभाव मानता है इसलिए वहाँ कार्यकारणभाव का प्रश्न ही नहीं उठता। कार्यकारणभाव की १. प्रमाणवार्तिक, २.३ । २. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग १, पृ० १० । ३. प्रमाणवार्तिक, १.३४ । ४. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग १, पृ० १८, कारिका ४८-५२ । ५. प्रमाणसमुच्चय, १.१ । ६. न्यायविनिश्चय विवरण, भाग १, कारिका ८८-९१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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