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________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक विवेचन . ८५ संभवतः उसके १९ अध्ययनों की बोधक हैं जो बहुत महत्त्वपूर्ण कथन है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण ग्रन्थ त्रयी में सूत्रकृताङ्ग के २३ अध्ययनों के नाम आए हुए है जो समवायाङ्गोक्त अध्ययनों से पर्याप्त साम्य रखते हैं। उपलब्ध ६ से ११ तक के अङ्गों में क्था की प्रधानता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में गौतम, अग्निभूति और वायुभूति के नाम आना और सुधर्मा का नाम न होना चिन्त्य है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण में जम्बू स्वामी का नाम तो है परन्तु सुधर्मा का नाम नहीं है । प्रश्नव्याकरण की मंगलयुक्त नवीन शैली है तथा ६ से ११ तक के अङ्गों की उत्थानिका एक जैसी अन्यपुरुष-प्रधान है। इससे इनको रचना परवर्ती काल में हुई है यह निर्विवाद सत्य है। यह सम्भव है कि इनमें कुछ प्राचीन रूप सुरक्षित हों। स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की जो विषयवस्तु दिग० धवला आदि में मिलती है और जो वर्तमान ग्रन्थों में उपलब्ध है उसमें बहुत अन्तर है | संभव है ये भी परवर्ती रचनाएँ हों । इनमें ऐसे भी बहुत से लौकिक विषय आदि आ गये हैं जिनका इनमें समावेश करना अपेक्षित नहीं था। वर्तमान प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के उत्तर के रूप में नहीं है। विधिमार्गप्रपा जो बहुत बाद की रचना है उसमें स्थानाङ्ग के १० स्थानों का तो उल्लेख है परन्तु समवायाङ्ग के १०० समवायों और श्रुतावतार की चर्चा तक नहीं है । नन्दी आदि अङ्ग बाह्य-ग्रन्थों का उल्लेख होने से भी समवायाङ्ग बहुत बाद की रचना सिद्ध होती है। अन्तकृदशा में जो वर्णन मिलता है वह स्थानाङ्ग आदि के कथन से मेल नहीं रखता है। यही स्थिति ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा आदि की है। __ इन सभी कारणों से ज्ञात होता है कि उपलब्ध आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध अधिक प्राचीन हैं। शेष में परवर्ती आचार्यों के कथनों का अधिक समावेश है। इतना होने पर भी उपलब्ध आगम हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। दिगम्बरों ने इनको सुरक्षित करने का प्रयत्न न करके बहुत बड़ी भूल की है। सभी ग्रन्थों का पृथक्-पृथक् समालोचन करके इनकी समयसीमा तथा विषय-वस्तु की मूलरूपता का विस्तार से निर्धारण अपेक्षित है। जो उभय परम्परा को मान्य हो। रीडर, संस्कृत विभाग, का० हि० वि० वि०, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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