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________________ जैनागम साहित्य में स्तूप १३९ मिलती है । मलयगिरि लिखते हैं कि मथुरा नगरी में कोई क्षपणक जैन मुनि कठिन तपस्या करता था, उसकी तपस्या से प्रभावित हो एक देवी आथी । उसकी वन्दना कर वह बोली कि मेरे योग्य क्या कार्य है ? इस पर जैन मुनि ने कहा- असंयति से मेरा क्या कार्य होना ? देवी को यह बात बहुत अप्रीतिकर लगी और उसने कहा कि मुझसे तुम्हारा कार्य होगा, तब उसने एक सर्वरत्नमय स्तूप निर्मित किया । कुछ रक्तपट अर्थात् बौद्ध भिक्षु उपस्थित होकर कहने लगे यह हमारा स्तूप है । छः मास तक यह विवाद चलता रहा। संघ ने विचार किया कि इस कार्य को करने में कौन समर्थ है। किसी ने कहा कि अमुक मुनि ( क्षपणक) इस कार्य को करने में समर्थ है। संघ उनके पास गया । क्षपणक से कहा कि कायोत्सर्ग कर देवी को आकम्पित करो अर्थात् बुलाओ। उन्होंने कायोत्सर्ग कर देवी को बुलाया। देवी ने आकर कहा - बताइये मैं क्या करूँ ? तब मुनि ने कहाजिससे संघ की जय हो वैसा करो। देवी ने व्यंग्यपूर्वक कहा- अब मुझ असंयति से भी तुम्हारा का होगा । तुम राजा के पास जाकर कहो कि यदि यह स्तूप बौद्धों का होगा तो इसके शिखर पर रक्त-पताका होगी और यदि यह हमारा अर्थात् जैनों का होगा तो शुक्ल पताका दिखायी देगी । उस समय राजा के कुछ विश्वासी पुरुषों ने स्तूप पर रक्त पताका लगवा दी । तब देवी ने रात्रि को उसे श्वेत पताका कर दिया । प्रातःकाल स्तूप पर शुक्ल पताका दिखायी देने से जैन संघ विजयी हो गया । मथुरा के देव-निर्मित स्तूप का यह संकेत किंचित् रूपान्तर के साथ दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहत्कथाकोश के वैरकुमार के आख्यान में तथा सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू के षष्ठ आश्वास में व्रजकुमार की कथा में मिलती है । पुनः चौदहवीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने भी विविधतीर्थकल्प के मथुरापुरीकल्प में इसका उल्लेख किया है | सन्दर्भ में 1 से हुए विवाद का भी किञ्चित् रूपान्तर के साथ सभी ने उल्लेख किया है । इस कथा से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । प्रथम तो उस स्तूप को देव-निर्मित कहने का तात्पर्य यही है कि उसके निर्माता के सम्बन्ध में जैनाचार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात नहीं था, दूसरे उसके स्वामित्व को लेकर जैन और बौद्ध संघ में कोई विवाद हुआ था। तीसरे यह कि जैनों में स्तूपपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी । यह भी निश्चित है कि परवर्ती साहित्य में उस स्तूप का जैनस्तूप के रूप में ही उल्लेख हुआ है । अतः उस विवाद के पश्चात् यह स्तूप जैनों के अधिकार में रहा- इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है । लेकिन यहाँ मूल प्रश्न यह है कि क्या उस स्तूप का निर्माण मूलतः जैन ' स्तूप के रूप हुआ था अथवा वह मूलतः एक बौद्ध परम्परा का स्तूप था और परवर्ती काल में वह जैनों के अधिकार में चला गया ? इसे मूलतः बौद्ध परम्परा का स्तूप होने के पक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं । सर्वप्रथम यह कि जैन परम्परा के आचारांग जैसे प्राचीनतम अंग - आगम साहित्य में जैन स्तूपों के निर्माण और उसकी पूजा के उल्लेख नहीं मिलते हैं, अपितु स्तूपपूजा का निषेध ही है । यद्यपि कुछ परवर्ती आगमों स्थानांग, जीवाभिगम, औपपातिक एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जैन- परम्परा में स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा के संकेत मिलने लगते हैं, किन्तु ये सब ईसा की प्रथम शताब्दी की या उसके १. वैरकुमारकथानकम् - बृहत्कथाकोश ( हरिषेण ) भारतीय विद्याभवन, बम्बई, १९४२ ई०, पृ० २२ २७ ॥ २. व्रजकुमारकथा - पृ० २७०, षष्ठ आश्वास । तो ३. विविधतीर्थकल्प - मथुरापुरीकल्प । Jain Education International - यशस्तिलकचम्पू, अनु० व प्रकाशक - सुन्दरलाल शास्त्री, वाराणसी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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