SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम साहित्य में स्तूप १३७ पाँचवीं शताब्दी तक बौद्ध-परम्परा के प्रभाव के कारण ही जैन परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूपपूजा की अवधारणा विकसित हुई होगी, जो बौद्धों के पतन काल अर्थात् सातवीं, आठवीं शताब्दी के पश्चात् पुनः लुप्त हो गई, क्योंकि हमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् की जैन रचनाओं में, केवल उन आगम ग्रन्थों की टीकाओं तथा मथुरा एवं वैशाली के ऐतिहासिक विवरण देने वाले ग्रन्थों को छोड़कर, जिनमें स्तूप शब्द आया है, कहीं भी जिन-स्तूपों का उल्लेख नहीं मिलता है। १४वीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में मथुरा में जैन स्तूपों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध हैं। उपाङ्ग साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें तीर्थंकर, गणधर और विशिष्ट मुनियों की चिताओं पर चैत्यस्तूप बनाने के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसे उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में भी उपलब्ध हैं'। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और आवश्यकनियुक्ति निश्चित हो आगमों के लेखनकाल अर्थात् ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना है। इस सबसे हमारी उस मान्यता की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की प्रथम पाँच शताब्दियों में ही जैन परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा रहो और बाद में वह क्रमशः विलुप्त होती गई । यद्यपि चैत्य-स्तम्भों एवं चरण-चिह्नों के निर्माण की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित चली आ रही है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि चैत्य-स्तूपों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों की अपनी मौलिक परम्परा नहीं थी, अपितु वह लौकिक परम्परा का प्रभाव था । वस्तुतः स्तूप निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा महावीर और बुद्ध से पूर्ववर्ती एक लोकपरम्परा रही है, जिसका प्रभाव जैन और बौद्ध दोनों पर पड़ा। सम्भवतः पहले बौद्धों ने उसे अपनाया और बाद में जैनों ने। जैनागम साहित्य में मुझे किसी भी ऐतिहासिक जैन स्तूप का उल्लेख देखने में नहीं आया। जैन साहित्य में जिन स्तूपों-चैत्यों का उल्लेख है, उनमें व्यवहारचूर्णि में उल्लिखित मथुरा एवं आवश्यकचूणि में उल्लिखित वैशाली के स्तूप को छोड़कर देव-लोक (स्वर्ग), नन्दीश्वरद्वीप एवं अष्टापद (कैलाशपर्वत) आदि पर निर्मित स्तूपों के ही उल्लेख हैं, जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध ही है। मथुरा के ऐतिहासिक स्तूप का प्राचीनतम उल्लेख व्यवहारचूणि में और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि की टीका में मिलता है। इसके सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में अन्यत्र भी उल्लेख है। आवश्यकचूणि में वैशाली में मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप का उल्लेख है। इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन साहित्य में जो स्तूप-सम्बन्धी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा और वैशाली के प्रसंग ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें भी वैशाली के सम्बन्ध में कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिले हैं । जैन धर्म में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा के पुरातात्त्विक प्रमाण अभी तक तो केवल मथुरा से उपलब्ध हुए १(अ). महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एगं भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणहरस्स, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २।३३, पृ० १५७-१५८ । (ब). आवश्यक नियुक्ति, गाथा ४३५ । ( मूल के लिए देखिए इसी लेखा का सन्दर्भ क्रमांक ६ )। २. देखें-इसी लेख का सन्दर्भ क्रमांक ८ । ३. वेसालिए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुव्वय सामिस्स थूभो । -आवश्यकचूणि (पारिणामिक बुद्धि प्रकरण), पृ० ५६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy