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________________ १३४ सागरमल जैन हुआ है। प्राचीन जैनागमों में भी चिता-स्थल पर निर्मित स्मारक को चैत्य कहा गया है। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के चितास्थल पर उनकी स्मृति हेतु चबूतरा बना दिया जाता था, जो चैत्य कहलाता था। कभी-कभी चबूतरे के साथ-साथ वहाँ वृक्षारोपण कर दिया जाता था, जिसे चैत्यवृक्ष कहा जाता था। यदि यह स्मृति-चिह्न छत्राकार होता था, तो यह चैत्य-स्तूप कहलाता था । वाच. स्पत्यम् में मुखरहित छत्राकार के यक्षायतनों के लिए चैत्य शब्द का भी उल्लेख है। सम्भवतः इस स्मृति-चिह्न में मृतात्मा ( व्यन्तर ) का निवास मानकर पूजा जाता था। इस प्रकार विशिष्ट मृत व्यक्ति के स्मारक / स्मृति-चिह्न पूजा-स्थलों के रूप में परिवर्तित हो गये और पूजनीय माने जाने लगे। पहले जहाँ व्यक्ति के शव को जलाया जाता होगा, वहाँ चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तूप बनते होंगे। आगे चलकर व्यक्ति के किसी शारीरिक अवशेष अर्थात् अस्थि, राख आदि पर चैत्य या स्तूप बनाये जाने लगे। फिर मात्र उन्हें पूजने के लिए यत्र-तत्र उनके नाम पर चैत्य या स्तूप बने। मूर्तिकला का विकास होने पर चैत्य यक्षायतन और सिद्धायतन अर्थात् यक्ष-मन्दिर या जिन-मन्दिर के रूप में विकसित हुए। ईसा की छठी शताब्दी तक जैन साहित्य में चैत्य शब्द जिन-मन्दिर के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा था और चैत्यालय, चैत्यगृह आदि जिन-मन्दिर के पर्यायवाची माने जाने लगे। किन्तु जहाँ तक आचारांग में प्रयुक्त चैत्यकृत-स्तूप के अर्थ का प्रश्न है, उसमें उसका अर्थ है-किसी की स्मृति में उसके चिता-स्थल पर अथवा उसके शारीरिक अवशेषों पर निर्मित मिट्टी, ईंटों या पत्थरों की छत्राकार आकृति । प्रारम्भ में स्तूप किसी के चिता-स्थल अथवा अस्थि आदि शारीरिक अवशेषों पर निर्मित ईंट या पत्थरों की छत्राकार आकृति होता था। चैत्य-स्तूप के साथ-साथ चैत्य-वृक्षों का भी हमें आचारांग में उल्लेख मिलता है। प्रथम तो किसी व्यक्ति के दाह-स्थल या समाधि-स्थल पर उसकी स्मृति में वृक्षारोपण कर दिया जाता होगा और वही वृक्ष चैत्यवृक्ष कहलाता होगा। यद्यपि आगे चलकर जैन परम्परा में वह वृक्ष भी चैत्यवृक्ष कहलाने लगा, जिसके नीचे किसी तीर्थकर को केवल ज्ञान उत्पन्न होता था। क्रमशः इन चैत्य-वृक्षों एवं चैत्यस्तपों की श्रद्धावान सामान्यजनों के द्वारा पूजा की जाने लगी। आचारांग में जिन चैत्य-स्तपों का उल्लेख है, वे चैत्य-स्तूप जैन परम्परा या जैनधर्म से सम्बन्धित हैं-ऐसा कहना कठिन है, क्योंकि उसमें आकार, तोरण, तलगृह, प्रासाद, वृक्षगृह, पर्वत आदि की चर्चा के सन्दर्भ में ही चैत्य-वृक्ष और चैत्य-स्तूपों का उल्लेख हुआ है। साथ ही जैनमुनि को स्तूप आदि को उचक-उचक कर देखने तथा स्तूपमह अर्थात् स्तूप-पूजा के महोत्सवों एवं मेलों में जाने का निषेध किया गया है। १. नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः । सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ॥ १५१ ।। चैत्यश्मशानसीमासु पुण्यस्थाने सुरालये । जातद्रुमाणां द्विगुणो दमो वृक्षे च विश्रुते ॥ २२८ ॥ -याज्ञवल्क्यस्मति, व्यवहाराध्याय । २. वाचस्पत्यम्, पृष्ठ २९६६ । ३(अ). आचारांग (द्वितीय-श्रुतस्कन्ध-आयारचूला ) १।२४; ३।४७; ४।२१ ( इनके मूलपाठों के लिए देखें इसी लेख का सन्दर्भ क्रमांक १ )। (ब).से भिक्खू वा भिक्खुणी वा""मडयथूभियासु वा, मडयचेइएसु वा.....णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । -वही, १०१२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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