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________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ९३ का एक समतल में फैलाव बतलाया गया है । अढ़ाई द्वीप तक जहाँ तक मानुषोत्तर पर्वत है, नक्शा देने की आवश्यकता तो है ही। इनमें सभी रचनाएँ सम्मिलित हैं । द्वीप और समुद्र ठीक वृत्ताकार किस तथ्य के द्योतक हैं ? इन सभी बातों से प्रतीत होता है कि विस्तृत क्षैतिज समतल में विभाजन की आवश्यकता पड़ी होगी और वृत्ताकार क्षैतिज रूप में द्वीप समुद्रों की कल्पना करते हुए रज्जू के विस्तार को भरा गया। इसका एक उपयोग और था । वह था - पल्योपम और सागरोपम की वर्षं एवं समय संख्या राशि प्राप्त करना । अस्तु, जम्बूद्वीप में ही भौगोलिक सामग्री भी भर देने का प्रयास किया गया होगा । यह निश्चित है कि जम्बूद्वीप को एक लाख योजनं मानने पर उसकी तुलना आज पृथ्वी के भूगोल से हो ही नहीं सकती है। न ही उसके पर्वतों और नदियों की तुलना आज की भौगोलिक वस्तुओं से की जा सकती है । यह तब तक असम्भव है जब तक कि यहाँ प्रयुक्त योजन hat fनर्धारित नहीं किया जाता है। लिश्क एवं शर्मा ने ' x ( ४९८२० ) अर्थात् ( ४४८२० - ५००० ) योजनों को पृथ्वी के गोल के ६६° में मान्यता दी है । वहीं ५१० योजनों को आत्मांगुल पद्धति में ४८° की मान्यता दी है। इस प्रकार ६६° चाप x ६६ = ७०११ योजन आत्मांगुल पद्धति में उत्सेधांगुल पद्धति के १४०२ योजनों में परिवर्तित हो जाते हैं । इन्हीं का मान चीनी ली माप में १४०२३ × ३५ = ४९०८७ ली होता है। यह माप ४९८२० के विशेष निकट है। उन्होंने तदनुसारे एक योजन को पृथ्वी पर ६३ मील के लगभग मान कर ७०१ योजन जम्बूद्वीप की त्रिज्या को पृथ्वी की त्रिज्या, जो ४००० मील के लगभग है, ला दिया है । यह प्रयास वास्तव में प्रशंसनीय है । योजन यहाँ कोणीय माप के रूप में सूर्य और चन्द्र के उत्तर-दक्षिण गमन के अवलोकन से अवतरित हुआ होगा । उन्हीं मापों में जम्बूद्वीप को लेना तो एक सीमा तक ठीक है, किन्तु प्रश्न है कि शेष द्वीप समुद्रों के विवरण का क्या अभिप्राय रहा है ? यह तथ्य भी स्पष्ट है कि उनके द्वारा पल्य और सागर का तथा कुल ज्योतिष बिम्बों का संख्यामान स्थापित किया गया होगा । नेमिचन्द्राचार्य की गणित सम्बन्धी मान्यताएँ और अब गणित विद्या का प्रारूप । गहराई तक जाने के लिए गणित के प्रतीकों में तन्मय रहना पड़ता है । सबसे स्पष्ट निरूपण है— ज्यामिति, जीवामिति अथवा रेखागणित का, जिसका अनुसरण यूनानियों ने विलक्षण ढंग से अनेक प्रकार की गणित को सरल बनाने में किया । जैसे √२ अर्थात् २ का वर्गमूल किस प्रकार रेखा में प्ररूपित हो समकोण त्रिभुज में यदि आधार और लम्ब दोनों ही एक-एक इंच हों तो उनका कर्ण √२ होता है और आसानी से नापा व समझा जा सकता है | नेमिचन्द्राचार्य के विवरण में उपमा मान में बहुत कुछ यही रेखागणित है, जिससे कई प्रकार की राशियों के मान स्थापित किये गये हैं । ? १. Lishk, S.S.; Sharma, S. D. — The Evolution of Measures in Jain Astromony Tirthankar Vol. I, nos. 7. 12, Jul. Dec 1975, 73-92. २. चीन में छाया माप द्वारा सूर्य की ऊँचाई १,००,००० ली ज्ञात की गई, जबकि पृथ्वी की गोलाई का कोई योजन लगभग ९६ मील आता है, जिससे इसके द्वारा भौगोलिक सामग्री व तथ्यों को अनुमान नहीं था । अतएव इसे ८०० योजन मान लेने पर पृथ्वी की परिधि लगभग २३००० मील प्राप्त हो जाती है। जैनागम के अनुसार व्यवस्थित करने सम्बन्धी शोध को बढ़ावा मिल सकता है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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