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________________ दलसुख मालवणिया भी हो, बाह्याचार कैसा भी हो, यथार्थ रूप से कोई मुनि हो सकता है। ___ आवश्यक की टीका में हरिभद्र ने बोटिक सहित सभी निह्नवों को मिथ्यादृष्टि कहा है"निह्नवो मिथ्यादृष्टिः", साथ ही अन्य किसी का मत देकर कहा है कि 'अन्ये तु द्रव्यलिङ्गतोपि भिन्ना बोटिकाख्या इति ।"१ । सारांश यह है कि बोटिक बाह्य वेश की अपेक्षा से भी भिन्न हैं अर्थात् वे नग्न रहते थे। अतएव मतभेद के अलावा बाह्यवेश से भी वे भिन्न हुए। विशेषावश्यक में लिङ्ग-भेद की बात तो आचार्य ने कही, किन्तु समग्र चर्चा से इतना हो स्पष्ट होता है कि बोटिकों ने वस्त्र और पात्र का त्याग किया। वेशान्तर में रजोहरण के स्थान में पिच्छी का ग्रहण किया या नहीं-इस विषय की कोई चर्चा नहीं मिलती। यदि पिच्छी का ग्रहण किया होता, तो आचार्य जिनभद्र अपनी चर्चा में उसे भी परिग्रह क्यों न माना जाय-यह प्रश्न अवश्य उठाते। ऐसा न करके उन्होंने यदि वस्त्र परिग्रह है, तो शरीर को भी परिग्रह क्यों नहीं मानते-इत्यादि जो दलीलें दी हैं, वह पिच्छी की चर्चा के बाद ही देते। इससे पता चलता है कि पिच्छी का उपयोग प्रारम्भ में बोटिकों ने किया नहीं था। रजोहरण का प्रयोग वे करते थे या नहीं यह स्पष्ट नहीं होता, किन्तु यदि करते होते तो वह परिग्रह क्यों नहीं- ऐसी चर्चा भी जिनभद्र अवश्य करते ।। आचाराङ्ग-चूणि में एक वाक्य बोटिक की उपधि के विषय में आता है, उसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। किन्तु तद्गत कुच्चग-कड से तात्पर्य कूचा (पिच्छ) और कट अर्थात् सादडी (चटाई) से हो, तो आश्चर्य नहीं-पाठ है-“जहा बोडिएण धम्म कुच्चग-कड-सागरादि सेच्छया गहिता ।" बोटिक पात्र नहीं रखते थे, अतएव जहाँ भिक्षार्थ जाते थे, वहीं भोजन कर लेते थे"असणादी वा (३) तत्थेव भुंजति जहा बोडिय" और उनकी भोजन-विधि क्या थी, उसे भी बताया है कि वे "पाणिपुडभोइणो" अर्थात् हस्त-पुट-भोजी थे- "तेण जे इमे सरीरमत्तपरिग्गहा पाणिपुडभोइणो ते णाम अपरिग्गहा, तं जहा उड्डंडगबोडियासारक्खमादि ।"४ यहाँ उड्डंड का अर्थ है-तापस और सारक्ख का अर्थ है-आजीवक । आचार्य शीलाङ्क ने बोटिकों के उपकरणों की चर्चा करते हुए उनके उपकरणों की तालिका दी है- "कुण्डिका-तट्टिका-लम्बणिका-अश्ववालधिवालादि ।'६ शुरू में शायद इतने उपकरण बोटिक रखते नहीं होंगे, किन्तु शीलाङ्क के समय तक उपकरणों की वृद्धि हुई होगी। अश्ववालादि से रजोहरण का बोध होता है। ___ शीलाङ्क ने सरजस्क = आजीवक और बोटिक-दोनों को जो दिगम्बर कहा है, वह सम्प्रदाय का सूचक नहीं है, किन्तु नग्नता का-"यद्येवं अल्पेनापि परिग्रहेण -परिग्रहवत्वं अतः पाणिपुटभोजिनो दिगम्बराः सरजस्क-बोटिकादियोऽपरिग्रहाः स्युः, तेषां तदभावात् ।'' १. आवश्यक टीका, पृ० ३११ ।। २. आचाराङ्ग चूर्णि, पृ० ८२ । ३. वही, पृ० ३३६ । ४. वही, पृ० १६९ । ५. श्रमण भगवान् महावीर : कल्याणविजयकृत, पृ० २८० । ६. आचाराङ्ग, शीलाङ्क टीका, पृ० १३५ । ७. वही, पृ० २०७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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