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________________ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें ६३ मल्लवादि सूरि ( ईस्वी षष्ठम् शताब्दी मध्याह्न ) की संस्कृत टीका आज अनुपलब्ध है ।" हरिभद्र सूरि के अनेकान्तजयपताका ( ईस्वी ७६० पश्चात् ) में उपर्युक्त टीका से दो अवतरण उद्धृत किए हैं, जिनकी शैली मल्लवादि की द्वादशारनयचक्र की शैली से बिल्कुल ही मिलती-जुलती है । देव सूरि की सम्मति प्रकरण पर २५००० श्लोक- प्रमाण संस्कृत टीका (ईस्वी १०२४ पूर्व) में अन्य ग्रन्थों के अतिरिक्त, मल्लवादि की इस टीका का भी आधार लिया गया होगा । अभयदेव सूरि की बृहदकाय टीका के शैलीगत परीक्षण से उसमें मूल टीका का कुछ भाग या अवतरण भी मिल जाना असम्भव नहीं । मल्लवादि की कोई ऐसी ही प्राकृत रचना भी थी, जो आज नहीं मिलती । आचार्य मलयगिरि ( ईस्वी १२वीं शताब्दी ) ने इसमें से एक अवतरण उद्धृत किया है । हो सकता है कि यह कृति बहुत कुछ "सम्मति" के समान रही होगी । वाचक अजितयशस् हरिभद्रसूरि की अनेकान्तजयपताका पर लिखी स्वोपज्ञ वृत्ति में "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" कथन के सन्दर्भ में " अजितयशा " का उल्लेख हुआ है । उपर्युक्त ग्रन्थ के सम्पादक प्रा० हीरालाल कापडिया ने अजितयशा के विषय में कुछ नहीं कहा है। लेकिन राजगच्छीय प्रभाचन्द्राचार्य के प्रभावकचरित ( वि० सं० १३३४ / ई० सं० १२७८ ) के अन्तर्गत् "मल्लवादि चरित" में अजितयशा को मल्लवादि सूरि का ज्येष्ठ सहोदर कहा है और मुनित्व में उनको सूरिपद से विभूषित १. मल्लवादि का समय ईस्वी ४ थी या ५वीं शताब्दी नहीं हो सकता, जैसा ( स्व० ) पं० सुखलालजी और मुनिवर श्री जम्बुविजयजी मानते थे । दूसरी ओर मल्लवादी को विक्रम की ९वीं शती तक खींच लाना भी युक्त नहीं है, जैसा कि ( स्व० ) पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने किया था । ( उन्होंने धर्मोत्तर पर टिप्पण लिखने वाले, ९वीं शताब्दी के मल्लवादी, जो बौद्ध थे, उनको श्वेताम्बर दार्शनिक मल्लवादी मान लिया था । ) मल्लवादी ने नियुक्तियों में से उद्धरण दिये हैं, इसलिए उनको हम ६ठी शताब्दी के मध्यभाग से पहले नहीं रख सकते और द्वादशारनयचक्र (ईस्वी ७वीं शताब्दी उत्तरार्ध) के टीकाकार सिंहसूरि क्षमाश्रमण से वह पहले हो गये हैं । २. “स्वपरसत्त्वव्युहासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् "न विषयग्रहणपरिणामा हतेऽपरः संवेदने विषय प्रतिभासो युज्यते युक्त्ययोगात् ॥” ין ( Cf. H.R, Kapadia Anekāntajaypataka, Vol II, Gaekwad's oriental Series, Vol. CV. Baroda 1947, “Introduction” p. 10). ३. यह तथ्य बिल्कुल ही स्पष्ट है । ४. उनकी आवश्यक वृत्ति में मल्लवादी के नाम से निम्नलिखित गाथा उद्धृत है । यथाः Jain Education International " सङ्ग्रह विसेस सङ्ग्रह विसेसपत्थारमूलवागरणी । हवडिओ च पञ्जवनओ च सेसा वियप्पा सिं ॥ (Kapadia, "Intro.", p. 10) लेकिन यह गाथा कुछ पाठान्तर के साथ सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति प्रकरण में मिलती है । ( १.४ ) । यदि मलयगिरि ने भ्रमवश इसे मल्लवादी का मान लिया तो सम्भव है कि यह मल्लवादी की सम्मति टीका में से ही लिया गया हो । ५. Kapadia, Ibid. pp. LXXIIl and 33. ६. Cf. Ibid. p. LXXIV. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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