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________________ भागचंद जैन भास्कर प्रमाण माना गया है । इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् में उसे विलस्त (प्रदेश ) बराबर स्वीकार किया गया है । आत्मा का यही परिमाण बढ़ते-बढ़ते व्यापकता तक पहुँचा । जैन दार्शनिकों ने देहपरिमाण और व्यापकता के बीच समन्वयात्मक ढंग से कहा कि केवल ज्ञान की दृष्टि से आत्मा व्यापक है और आत्मप्रदेश की दृष्टि से वह शरीर-व्याप्त है। बौद्धदर्शन भी इसी को मानता हुआ दिखाई देता है। ___ इस संदर्भ में इतना और लिखना आवश्यक है कि चित्त की उत्पत्ति स्पर्श, वेदना आदि सर्वचित्तसाधारण चैतसिक धर्मों से सम्बद्ध होकर ही होती है । नाम ( संप्रयुक्त चैतसिक ) एवं रूप धर्म उसके आसन्न कारण हैं, जबकि जैनधर्म आत्मा को अजात, अनादि, अनन्त, अजर, अमर भोक्ता, कर्ता आदि मानता है । बौद्धदर्शन में चैतसिकों का आलम्बन चित्त उसी प्रकार है, जिस प्रकार कर्म का आलम्बन चित्त है। चित्त के अभाव में चेतसिकों का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। चैतसिकों से निर्मुक्त होने पर इसी चित्त धातु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसलिए निर्वाण अवस्था में चित्त के सद्भाव को स्वीकार नहीं किया गया। जैनधर्म आत्मा को मूलतः विशुद्ध मानता है, पर कर्मों के आवरण के कारण वह अविशुद्ध हो जाता है। इस अविशुद्धावस्था का नाम ही संसार है । धीरे-धीरे त्याग, तपस्या आदि के बल पर व्यक्ति कर्मों से पूर्ण मुक्त हो जाता है, उसके परिणाम विशुद्ध हो जाते हैं । यही अवस्था निर्वाणावस्था है। इसमें आत्मा का विनाश नहीं होता, बल्कि वह अपनी मूल विशुद्धावस्था में पहुँच जाता है। बौद्धधर्म में चित्त की अवस्थाओं (भूमियों) का वर्णन करते हुए उसे चार प्रकार का बताया गया है-कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर एवं लोकोत्तर। इनके ८९ भेद चित्त की विविध अवस्थाओं के सूचक हैं। जैनधर्म की परिभाषा में इन भूमियों को हम गुणस्थान कह सकते हैं। कामावचर चित्त का सम्बन्ध बहिरात्मा से है, रूपावचर और अरूपावचर चित्त आत्मा की अन्तरात्मावस्था को द्योतित करते हैं तथा लोकोत्तरचित्त परमात्मावस्था का प्रतीक है । इसी तरह कुशल, अकुशल और अव्याकृत चित्त को हम क्रमशः शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग कह सकते हैं। आत्मा का स्वरूप उपयोग या ज्ञान-दर्शनमय है। चित्त के लक्षणादि चतुष्कों से यह स्पष्ट है कि वह बिजानन लक्षण है । जहाँ विजानन होता है, वहाँ दर्शन होता ही है। अतः चित्त को भी आत्मा के समान ज्ञान-दर्शनवान् मानना चाहिए। __ अशुभोपयोग में आसक्त आत्मा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में गुथा रहता है, वह मोह, माया, राग, द्वेष आदि के बन्धनों से जकड़ा रहता है । यही संसार का मूल कारण है। बौद्धधर्म में वर्णित अकुशल चित्त भी लगभग इसी प्रकार के हैं । वे लोभमूल, द्वेषमूल और मोहमूल होते हैं। सौमनस्य, दौमनस्य तथा उपेक्षा भाव भी उसके साथ चक्कर लगाते रहते हैं। इन अकुशल चित्तों(१२) का सीधा सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। १. मुण्डकोपनिषद्, १. १. ६ । २. द्रव्यसंग्रह, वृत्ति, गा. १०; न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, भाषा टिप्पण देखिये । ३. छान्दोग्योपनिषद्, ५. १८.१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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