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________________ ४८ भागचंद जेन भास्कर दृष्टिदंष्ट्रावभेदं चापेक्ष्य भ्रंशं च कर्मणाम् । देशयन्ति बद्धा धर्म व्याघ्री पोतापहारवत् ।। चित्तों का आश्रय कौन है ? और कौन संस्कार विशेष की अपेक्षाकर चित्त का उत्पाद करता है ? आदि जैसे प्रश्न भी सही समाधान की खोज में लगे हुए हैं। बौद्धाचार्य इन प्रश्नों का पूरा समाधान नहीं कर पाये। आत्मा के अस्तित्व को सीधे ढंग से अस्वीकार किये जाने पर बौद्धों को 'संतति' स्पष्ट करने के लिए अनेक तत्त्वों की कल्पना करनी पड़ी। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने रूप का विभाजन किया। चतुर्महाभूतों के अतिरिक्त प्रसादरूप, गोचररूप, भावरूप, हृदयरूप, जीवितरूप, आहाररूप आदि अनेक प्रकार के रूप हैं। कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार रूप के उत्पादक कारण हैं। इनमें आत्मा के कार्य को करने वाले तत्त्वों के लिए चित्तविज्ञान, जीवितरूप, विज्ञप्तिरूप, हृदयरूप आदि जैसे तत्त्वों को खोजना पड़ा। चित्त, विज्ञान जैसे तत्त्व कहाँ से कैसे उत्पन्न होते हैं ? यह गुत्थी बनी ही रहती है। इसके बावजूद अत्तवादोपादान जैसे तत्त्वों को भी संयोजित किया गया, जो संसरण के कारणों के रूप में प्रस्तुत हुए। इस पर्यवेक्षण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धधर्म ने 'अत्तवाद' को विवाद का मूल कारण माना और उसे अव्याकृतवाद से आगे बढ़ाकर निरात्मवाद तक पहुंचाया। विवाद समाप्त तो नहीं हो सका, पर मानस में एक नई विचार-क्रान्ति अवश्य सामने आई । जिसने अपने उच्च स्वर में यह प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया कि आत्मा को न मानने से भी काम चल सकता है । पर यह सिद्धान्त सभी बौद्ध संप्रदायों को संतुष्ट नहीं कर सका। जैसा हम पीछे लिख चुके हैं, संमितीय बौद्ध अस्तित्ववादी हैं। उनका मन्तव्य है कि दर्शन, श्रवण, घ्राणादि वेदनाओं के उपादाता का अस्तित्व उपादानों के पूर्व अवश्य है, क्योंकि अविद्यमान कारक की दर्शनादि क्रिया का होना किसी भी स्थिति में संभव नहीं। परन्तु विज्ञानवादी इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । वे उसके खण्डन में अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं कि पुद्गल की प्रज्ञप्ति दर्शनादि से होती है । दर्शनादि से पूर्व यदि पुद्गल की सत्ता मानी जाय, तो वह दर्शनादि से निरपेक्ष होगी । यदि दर्शनादि के बिना पुद्गल आदि की सत्ता मानते हैं, तो पुद्गल के बिना भी दर्शनादि की सत्ता माननी पड़ेगी । अतः उपादान और उपादाता सिद्धि परस्परापेक्ष है। इसलिए दर्शनादि के पूर्व आत्मा के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। नागार्जुन, आर्यदेव, चंद्रकीर्ति आदि आचार्यों ने इस सिद्धान्त पर और भी गंभीर मंथन कर यह चिंतन प्रस्तुत किया कि आत्मा का अस्तित्व अग्नि और ईंधन के अस्तित्व से सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि अग्नि-इंधन में भेद, अभेद और भेदाभेद सिद्ध नहीं होता। उपादाता आत्मा के साथ उपादान पञ्च स्कन्ध की भी सिद्धि नहीं होती। उनके बीच क्रम का भी निर्धारण नहीं किया जा सकता, अन्यथा कर्ता और कर्म का एकत्व प्रसंग उपस्थित होगा। यहां यह दृष्टव्य है कि पुद्गलवादी बौद्ध जिस अनवराग्रता (आदि-अन्तकोटि शून्य) के माध्यम से जन्म, जरा, मरण की सत्ता रूप आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि की बात रखते हैं, उसी अनवराग्रता का आधार लेकर माध्यमिक दर्शन असत्ता को सिद्ध करता है। उनके अनुसार संसार और भाव की कोई पूर्व कोटि सिद्ध नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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