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________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३५ चिब्रह्म और शब्दाद्वैतवाद का शब्दब्रह्म भी लगभग इसी प्रकार का है । नैयायिकों का सामान्य नित्य और व्यापक है, जबकि जैनों का सामान्य अनित्य और अव्यापक है । मीमांसकों का सामान्य अनेकान्तवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अधिक झुका हुआ है। बौद्धों ने प्रतीत्यसमुत्पाद के माध्यम से पदार्थ को एकान्तिक रूप से क्षणिक माना । जैनाचार्य प्रतीत्यसमुत्पाद के स्थान पर उपादानोपादियभाव को मानते हैं । उनका द्रव्य कूटस्थनित्य न होकर अन्वयिपर्याय प्रवाह के रूप में अविच्छिन्न है । यही उसका ऊर्ध्वतासामान्य है । वैशेषिक एवं नैयायिकों के समवायिकरण से इसकी तुलना की जा सकती है । इस प्रकार जैनदर्शन में द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक माना गया है । सामान्य विशेषात्मक विशेषण पदार्थ के धर्मों की ओर संकेत करता है, जबकि द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण उसके परिणमन की ओर । दोनों विशेषण पदार्थ की परिणमनशोलता और उत्पाद-व्ययधौव्यात्मकता को स्पष्ट कर देते हैं । इस प्रकार जैनधर्म में द्रव्य का जो स्वरूप निर्दिष्ट है, लगभग वही स्वरूप बौद्धधर्म में भी स्वीकार किया गया है। जैनधर्म के निश्चयनय और व्यवहारनय बौद्धदर्शन के परमार्थ सत् और संवृतिसत् हैं । स्वलक्षण और सामान्यलक्षण भी इन्हीं के नामान्तर हैं । पर अन्तर यह है कि द्रव्य को 'संस्कृत' स्वरूप मानते हुए भी बौद्धदर्शन, विशेषतः माध्यमिक सम्प्रदाय, उसे निःस्वभाव अथवा शून्य कह देता है। इसकी सिद्धि में उसका कहना है कि संस्कृत रूप से उत्पाद आदि के स्वीकार किये जाने पर उत्पाद, स्थिति और भंग में सभी वस्तुओं को पुनः उत्पत्ति होती है और पुनः उत्पत्ति होने पर उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होगी। जैसे उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होना न्यायोचित है, वैसे भंग का होना भी न्यायोचित है । इसलिए भंग का भी, संस्कृतत्व होने के कारण, उत्पाद, भंग और स्थिति से सम्बन्ध है । अतएव भंग का भी अन्य भंग के सद्भाव से विनाश होगा । उसके बाद होने वाले भंग का भी विनाश होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष हो जायगा। और अनवस्था होने पर सभी पदार्थों की असिद्धि हो जायेगी । इसलिए स्वभावतः संस्कृत लक्षणों की सिद्धि नहीं हो सकती । वे शून्य और निःस्वभाव हैं । दिखाई देते हैं, वे भी माया के समान हैंउत्पादस्थितिभङ्गानां युगपन्नास्ति संभवः । क्रमशः संभवो नास्ति, सम्भवो विद्यते कदा ॥ उत्पादादिषु सर्वेषु, सर्वेषां सम्भवः पुनः । तस्मादुत्पादवत् भङ्गो, भङ्गवद् दृश्यते स्थितिः ॥' द्रव्य रूप भेद जैन दर्शन में जिस तरह से द्रव्य के भेद-प्रभेद हुए हैं, बौद्धदर्शन में भी उसी तरह से रूप का विस्तार हुआ है । रूप को अभिधम्मत्थसंगहो में पाँच प्रकार से निर्दिष्ट किया गया है - समुद्देश विभाग, समुत्थान, कलाप एवं प्रवृत्तिक्रम । समुद्देश में पृथ्वी, अप्, तेज और वायु ये चार महाभूत हैं और उनका आश्रय लेकर उत्पन्न होने वाले रूपों को स्थविरवाद में ग्यारह प्रकार से बताया गया है १. चतुःशतकम्, ३६०-३६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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