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________________ २५ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में स्यादस्ति = P (A) स्यान्नास्ति = P ( -B) स्यादवक्तव्य = P(-c) इस प्रकार प्रथम भङ्ग में स्वचतुष्टय का सद्भाव होने से उसे भावात्मक रूप में A कहा गया है। दूसरे भङ्ग में परचतुष्टय का निषेध होने से अभावात्मक रूप में -B कहा गया गया है और तीसरे मूल भङ्ग में वक्तव्यता का निषेध होने से -C कहा गया है । इस प्रकार सप्तभङ्ग के प्रतीकीकरण के इस प्रयास का अर्थ उसके मूल अर्थ के निकट बैठता है। अब विचारणीय विषय यह है कि स्यान्नास्ति भङ्ग का वास्तविक प्रारूप क्या है ? कुछ तकविदों ने उसे निषेधात्मक बताया है तो कुछ दार्शनिकों ने स्वीकारात्मक माना है और किसी-किसी ने तो द्विधा निषेध से प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में डा० सागरमल जैन के द्वारा प्रदत्त नास्तिभङ्ग का प्रतीकात्मक प्रारूप द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है कि नास्तिभंग के निम्नलिखित चार प्रारूप बनते हैं (१) अ, उ, वि, नहीं है। (२) अ* उ,-वि, है । ( ३ ) अ*2 उ,-वि नहीं है ( यह द्विधा निषेध रूप है ) । (४) अ२० उ, नहीं है। इनमें भी मुख्य रूप से दो ही प्रारूपों को माना जा सकता है-एक वह है, जिसमें स्यात् पद चर है। जिसके कारण अपेक्षा बदलती रहती है। यदि चर रूप स्यात् पद को P', P२ आदि से दर्शाया जाये, तो अस्ति और नास्ति भंग का निम्नलिखित रूप बनेगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P (-A) इसे निम्नलिखित दृष्टान्त से अच्छी तरह समझा जा सकता है-स्यात् आत्मा नित्य है (प्रथम भंग ) और स्यात् आत्मा नित्य नहीं है ( द्वितीय भंग ), इन दोनों कथनों में अपेक्षा बदलती गई है। जहाँ प्रथम भंग में द्रव्यत्व दृष्टि से आत्मा को नित्य कहा गया है, वहीं दूसरे भंग में पर्याय दृष्टि से उसे अनित्य ( नित्य नहीं ) कहा गया है । इन दोनों ही वाक्यों का स्वरूप यथार्थ है. क्योंकि आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य है, तो पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। वस्तुतः यहाँ द्वितीय भंग का प्रारूप निषेध रूप होगा । अब यदि उक्त दोनों भंगों को मूल भंग माना जाये और अवक्तव्य को-C से दर्शाया जाये, तो सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्नलिखित रूप से तैयार होगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P" (-A) (३) स्यादस्ति च नास्ति = P° (A -A) (४) स्यादवक्तव्य = P* (-c) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यम् = P (A-c) (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P° (-A.-c) (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = P' (A-A-C) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012016
Book TitleAspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1987
Total Pages558
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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