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________________ 8 सागरमल जैन उनके काम न आये, इसके लिए वे न केवल स्वयं चैतन्य रहते थे, अपितु अपने पारिवारिक सदस्यों एवं इष्ट मित्रों को भी सचेत एवं सावधान करते रहते थे । वस्तुतः लालाजी का समूचा जीवन एक खिलाड़ी का सा था, जिसमें हार का मतलब होता है, जीतने के लिए पूर्व से भी अधिक अभ्यास करना । उनकी इसी प्रवृत्ति ने उन्हें ऐसा व्यक्तित्व प्रदान किया, जिसके बलपर उन्होंने हर क्षेत्र में सफलता को कदम चूमने हेतु विवश किया । उनके भरे-पूरे परिवार में कुल ६ पुत्र और दो पुत्रियों ने जन्म लिया । इनमें श्री सुबुद्धिनाथ एवं प्रथम पुत्र श्री अमरचन्द्रजी जैन क्रमशः १९५८ एवं १९८५ में स्वर्गवासी हो गये । शेष चार पुत्र श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन, श्री विद्याभूषणजी जैन, श्री रमेशचन्द्र बरार एवं श्री कैलाशचन्द्रजी जैन अपने पूज्य पिता के नक्शे कदम पर ही चल रहे हैं। उनके पुत्रों में वरीयता क्रम के अनुसार दूसरे श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन सामाजिक और शैक्षणिक गतिविधियों में न केवल प्राणपण से कार्यरत हैं, अपितु वर्तमान में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के सचिव का महत्तर पद बड़ी ही निष्ठा और कुशाग्रता के साथ संभाले हुए हैं। लालाजी के बड़े भाई लाला रतनचन्दजी के पौत्र और श्री शादीलालजी के पुत्र श्री नृपराज एस० जैन जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान की संचालक समिति के उपाध्यक्ष भी हैं, अपने दादाजी की कृति पार्श्वनाथ विद्याश्रम के सम्यक् विकास हेतु सदैव सक्रिय योगदान देते हैं; आज वे समग्र जैन समाज की प्रतिनिधि एवं अखिल भारतीय संस्था "भारत जैन महामण्डल" के अध्यक्ष भी हैं। उनके परिवार की सेवाभावना का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उनके निधनोपरान्त उनके द्वारा स्थापित की गयी शैक्षणिक एवं सेवा संस्थाओं की निरन्तर प्रगति हेतु उनके परिवार ने उनकी स्मृति में सेवा और शिक्षा के लिए २५ लाख रुपये के एक चेरिटेबल ट्रस्ट का निर्माण करने का संकल्प लिया है। यह निश्चित ही उनका एक प्रशंसाजनक कदम है। यद्यपि आज हमारे बीच लालाजी का स्थूल शरीर विद्यमान नहीं है, लेकिन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के कण-कण में व्याप्त उनका सूक्ष्म शरीर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की कहानी कह रहा है। आज समाज का दायित्व हैं कि उनके द्वारा संस्थापित जैन विद्या के उच्चतम अध्ययन केन्द्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम को विकसित एवं समुन्नत करने में मनसा, वाचा, कर्मणा सहयोग दें । अन्त में हम इतना हो कहना चाहेंगे कि लालाजी ने जिस ज्ञानदोप को भगवान् पार्श्वनाथ की पावन नगरी में प्रज्ज्वलित किया है, उसकी ज्ञानरूपी द्वीप - शिखा सदैव आलोकित रहे यहो उनकी स्वर्गस्थ आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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