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________________ काजी अञ्जम सैफी रसों का भावक कहना प्रकारान्तर से स्वयं ही उसके उत्पत्ति-पक्ष को स्वीकार करना है। ध्यातव्य है कि स्वपक्ष की स्थापना से पूर्व स्वयं भट्टनायक रसोत्पत्ति का खण्डन करते हैं। एक तथ्य यह भी है कि मात्र काव्य-शब्द ही रस के भावक नहीं होते; क्योंकि अर्थ के अज्ञान की स्थिति में यह सम्भव नहीं है और एकाकी अर्थ भी भावकत्व की सामर्थ्य से रहित होता है, क्योंकि उसके बोधक विभिन्न शब्दों के प्रयोग से भी रस-भावना नहीं होती है। अतः शब्द और अर्थ दोनों सम्मिलित रूप से रस के भावक होते हैं। इन दोनों के भावकत्व का तो स्वयं हमने भी कथन किया है कि जब शब्द अथवा अर्थ स्वयं को अथवा अपने अर्थ को गौण करके व्यङग्यार्थ को प्रकट करते हैं, तब विद्वान् उस काव्य को ध्वनि कहते हैं। इसलिए गुण, अलङ्कार और औचित्य आदि इतिकर्तव्यता रूप व्यञ्जना-व्यापार के माध्यम से ही काव्य रसों को भावित करता है। अंशत्रयी भावना के करण नामक अंश में ध्वनन व्यापार ही होता है। भावकत्व की ध्वनन व्यापार में अन्तर्भु क्त के कारण धनञ्जय और धनिक की सम्पूर्ण मान्यता स्वयमेव ध्वस्त हो जाती है। डॉ० रामलखन शुक्ल द्वारा कृत धनञ्जय की यह आलोचना भी उचित प्रतीत होती है कि उन्होंने कवि कल्पना को स्पष्टतः स्वीकार कर लिया है और यह सिद्ध किया है कि सामाजिक की वासना को उद्रिक्त करने में वह सहायक सिद्ध होती है और परिणामस्वरूप सामाजिक अपनी ही वासना की रसरूप में चर्वणा करता है, किन्तु सामाजिक की वासना को स्पष्ट स्वीकृति देकर भी उन्होंने उसकी अभिव्यक्ति न मानकर बहुत बड़ी भूल की है। स्थायीभाव वासनारूप में प्रत्येक सामाजिक में अवस्थित रहते हैं। विभाव आदि उन्हीं स्थायी भावों को उद्रिक्त करते हैं और सामाजिक की चर्वणा स्वगत ही होती है। इस प्रकार यदि हम देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रस की अभिव्यक्ति ही होती है। वह वाच्यार्थ के रूप में प्रतीत नहीं होता। उन्होंने काव्य को रसवान् कह कर यह सिद्ध किया है कि यह लाक्षणिक प्रयोग है। उनका कहना है कि रसोद्रेक में काव्य सहायक भूततत्त्व है। वह वस्तुतः रसवान् नहीं होता, रसवान् तो सामाजिक होता है। इतना स्वीकार करने के बावजूद उन्होंने वाक्यार्थ में ही रस कैसे मान लिया ? यदि स्थायीभाव ही विभावादि से आस्वाद-योग्य बनाये जाते हैं और ये स्थायी भाव सामाजिक के हैं, जैसा कि धनञ्जय और धनिक ने स्वीकार किया है, तो उनकी मान्यता निश्चय ही उनके अपने मत के विपरीत पड़ती है, --------- ------------ -- ------------- भावकत्वमपि समुचित गुणालङ्कारपरिग्रहात्मकस्माभिरेव वितत्य वक्ष्यते । किमितदपूर्वम् । काव्यं च रसान प्रतिभावकमिति यदुच्यते तत्र भवतैव भावनादुत्पत्ति पक्ष एव प्रत्युज्जीवितः । लो० (ध्वन्या० भाग १ ) पृ० ३१७ । २. भट्टनायकस्त्वाह-रसो न प्रतीयते । नोत्पद्यते । नाभिव्यंज्यते । अभि. भा० (ना० शा० भाग-१) पू. २७६ । ३. न च काव्यशब्दानां केवलं भावक त्वम्, अर्थापरिज्ञाने तद्भावात् । न च केवलानामर्थानाम्, शब्दान्तरेणा lमाणत्वे तदयोगात् । द्वयोस्तु भावकत्वमस्माभिरेवोक्तम् । यथार्थः शब्दो वा तमर्थं व्यक्तः । ३१ इत्यत्र । तस्माद् व्यञ्जकत्वारण्येन व्यापारेण गुणालङ्कारोचित्यादिकय ति कर्तव्यं तया काव्यं भावकं रसान् भावयति, इति त्र्यंशायामपि भावनायां करणांशे ध्वनननेव नियतति । लो० (ध्वन्या० भाग-१) पृ० ३१६-३१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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