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________________ १२८ काजी अञ्जुम सैफी । प्रत्यक्ष होता है तथा काव्यगत परगत और परोक्ष होता है ।" वस्तुतः नाट्यदर्पण का प्रस्तुत स्थल किञ्चित् अस्पष्ट-सा है रामचन्द्र - गुणचन्द्र यहाँ लोक, नट, काव्य के श्रोता, अनुसन्धाता और प्रेक्षक के रूप में रस के ५ आधारों का उल्लेख कर उनकी स्व-परता और प्रत्यक्ष-परोक्षता का निर्देश करते हैं । दोनों के मध्य स्पष्ट विभाजन उनके द्वारा नहीं किया गया । आचार्यं विश्वेश्वर इनमें प्रथम ४ के रसास्वाद को स्वगत एवं प्रत्यक्ष कहते हैं तथा अन्तिम 'प्रेक्षक' को द्वितीय वर्ग में रखते हैं । २ डॉ० रमाकान्त त्रिपाठी ने भी आचार्य विश्वेश्वर का ही अनुसरण किया है । वस्तुतः उनका यह दृष्टिकोण अनुचित प्रतीत होता है । रामचन्द्र गुणचन्द्र का अभिप्राय यहाँ लोकगत और काव्यगत रसास्वाद है । डॉ० ऋषि कुमार चतुर्वेदी का भी यही दृष्टिकोण है | रस तृतीय विशेषता के अनुसार लोकगत रस स्पष्ट तथा काव्यगत रस ध्यामल (अस्पष्ट ) होता है। लोक में स्त्री-पुरुष आदि विभावों के वास्तविक एवं स्पष्ट होने के कारण रस एवं उससे उत्पन्न अनुभाव और व्यभिचारी भाव भी स्पष्ट होते हैं । काव्य में प्रदर्शित विभावों के अवास्तविक होने के कारण रस के सदृश ही व्यभिचारी एवं अनुभाव भी अस्पष्ट होते हैं और इस अस्पष्टता के आधार पर ही प्रेक्षक आदिगत रस लोकोत्तर कहा जाता है । अब प्रश्न उठता है कि सामाजिक को रसास्वाद किस प्रकार होता है ? रामचन्द्र- गुणचन्द्र के अनुसार अनुकर्ता द्वारा अनुकार्य को न देखे जाने पर भी कवि-निबद्ध राम आदि के चरित्र को पढ़कर एवं अत्यन्त अभ्यास के द्वारा स्वयं देखा-सा स्वीकार करके अभिनय के समय नट को यह अध्यवसाय हो जाता है कि स्वयं साक्षात् दृष्ट राम आदि का अनुमान कर में अनुकरण कर रहा हूँ । वस्तुतः अनुकर्ता राम का नहीं अपितु लोक व्यवहार का अनुकरण करता है; क्योंकि स्वयं प्रसन्न होने पर भी राम आदि के रोने पर वह रोता है और स्वयं खिन्न होने पर भी राम आदि के प्रसन्न होने पर वह प्रसन्न होता एवं हँसता है । प्रेक्षक भी राम आदि विषयक शब्द-संकेतों के श्रवण और अत्यन्त हृदय संगीत के कारण विवश हो जाता है तथा स्वरूप, देश एवं काल का भेद होने एवं अनुकर्ता के अनुकार्य न होने पर १. तदेवं स्व-परयोः प्रत्यक्ष - परोक्षाभ्यां गमः सुख-दुःखात्मा लोकस्य नटस्य काव्यश्रोत्रनुसन्धात्रोः प्रेक्षकस्य च रसः । पूर्वोक्त पृ० १४३ । २. हि० ना० द० पृ० ३०१ । ३. संस्कृत नाट्य सिद्धान्त पृ० १५६ । ४. रस- सिद्धान्त, डॉ० ऋषि कुमार चतुर्वेदी, पृ० १२४ । ५. केवलं मुख्यस्त्री-पुंसयोः स्पष्टेनैव रूपेण रसो विभावानां परमार्थसत्त्वादत एव व्यभिचारिणोऽनुभावाश्च रसजन्याः तत्र स्पष्टरूपाः । अन्यत्र तु प्रेक्षकादी ध्यामलेनैव रूपेण विभावानाम परमार्थसतामेव काव्यादिना दर्शनात् । अतएव व्यभिचारिणोऽनुभावाश्च रसानुसारेणास्पष्टा एव । अतएव प्रेक्षकादिगतो रसो लोकोत्तर इत्युच्यते । विवृति, ना ५० पृ० १४३ । ६. रामादेरनुकार्यस्य नटेन प्रेक्षकैर्वा स्वयमदृष्टत्वात् । अनुकर्ता ह्यनुकार्यमदृष्ट्वा नानु कर्तुमलम् । प्रेक्षकोऽपि चादृष्टानुकार्यो नानु कर्तुरनुकर्तृत्वमनुमन्यते । तद्यं नटो रामादेश्चरितं कविनिबद्धमधीत्यात्यन्ताभ्यासवशतः स्वयं दृष्टमनुमन्यमानोऽनुकरोमीत्यध्यवस्यति, परमार्थस्तु लोकव्यवहारमेवायमनुवर्तते । प्रहृष्टोऽपि हि रामेण रुदिते रोदिति, न तु हसति । विषण्णोऽपि च हसिते हसति न तु रोदितीत्यादि । पूर्वोक्त पृ० १६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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