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________________ १२६ काजी अजुम सैफी हैं । इसी कारण हास्य आदि को क्रमशः शृङ्गार आदि से उत्पन्न कह दिया जाता है' । वस्तुतः चित्त सम्भेद की अपेक्षा से ही यहाँ शृङ्गार आदि को हेतु तथा हास्य आदि को हेतुमान कहा गया है, कार्य-कारण-भाव के अभिप्राय से नहीं । नाट्यदर्पण में रस- स्वरूप एवं निष्पत्तिः - आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र गुणचन्द्र ने विभाव एवं व्यभिचारी भावों के द्वारा पूर्ण उत्कर्ष प्राप्त और स्पष्ट अनुभावों द्वारा निश्चित स्थायीभाव को सुख-दुःखात्मक रस कहा है । स्थायी भाव के लोक-सिद्ध कार्य हेतु और सञ्चारियों को काव्य क्रमशः अनुभाव, विभाव, और व्यभिचारी कहा जाता है । काव्य में परस्थ रस की प्रतिपत्ति होती है और यह चित्तधर्म रूप होने एवं चित्तधर्म के अतीन्द्रिय होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं होती है । अतः परस्थ रस की यह परोक्ष प्रतीति उसके नान्तरीयक अर्थात् अविनाभूत कार्यरूप अनुभावों के माध्यम से ही होती है । * रामचन्द्र-गुणचन्द्र के अनुसार सामाजिकों के मनोरञ्जन के लिये अनुकार्यगत विभाव आदि के अनुकरण में प्रवृत्त नट में रसाभाव होने पर भी स्तम्भ आदि अनुभावों की प्राप्तिवश यह आशङ्का व्यर्थ है कि यह रस के नान्तरीयक नहीं होते वस्तुतः नटगत अनुभाव सामाजिकस्थ रस के जनक होने से उसके कारण ही होते हैं, कार्य नहीं । सामाजिकगत अनुभावों को ही तद्गत रस का बोधक होने से कार्य कहा जायेगा । " । वास्तव में लौकिक जीवन में स्त्री, पुरुष एवं नट और काव्यगत रोमाञ्च आदि अनुभाव सामाजिक में रस के जनक होने से विभाव ही होते हैं तथा इसके विपरीत प्रेक्षक, श्रोता एवं अनुसन्धाता में स्थित होने पर इनको अनुभाव ही कहा जायेगा, क्योंकि तब यह प्रेक्षक आदि में स्थित रस के नान्तरोयक होंगे । रस- परिभाषा के अवसर पर कथित 'व्यभिचारी' शब्द से रामचन्द्र - गुणचन्द्र का आशय सामाजिकगत व्यभिचारी भावों से है, अनुकार्य या अनुकर्तागत व्यभिचारियों से नहीं । ७ रस के १. पूर्वोक्त ४।४३-४५ ॥ २. हेतु हेतुमद्भाव एव सम्मेदापेक्षा दर्शितो न कार्यकारणभावाभिप्रायेण तेषां कारणान्तरजन्यत्वात् । धनिकवृत्ति ( दश० ) पृ० ३४९ । ३. ना० द० ३१८ | ४. इह तावत् सर्वलोक प्रसिद्धा परस्थस्य रसस्य प्रतिपत्तिः । सा च न प्रत्यक्षा, चेतोधर्माणामतीन्द्रियत्वात्, तस्मात् परोक्षा एव । परोक्षा च प्रतिपत्तिरविनाभूताद् वस्त्वन्तरात् । अत्र च रसे अन्यस्य वस्त्वन्तरस्यासम्भवात् कार्यमेवाविना कृतम् । विवृत्ति, ना० द० पृ० १४२ । ५. परगत विभावाद्यनुक्रियायां च पररञ्जनार्थं प्रवृत्तस्य नटस्य रसाभावेऽपि स्तम्भस्वेदादयो भवन्तीति । नैषां रसान्तरीयकत्वमाशङ्कनीयम् । तेषां परगत रसजनकत्वेनाकार्यत्वात् नटगता हि स्तम्भादयो प्रेक्षकगतरसानां कारणम्, प्रेक्षकगतास्तु कार्याणि । पूर्वोक्त पृ० १४२ । ६. रोमाञ्चादयश्च ये स्त्री-पुंस-नट - काव्यस्थास्ते परेषां रसजनकत्वात् विभावमव्यवर्तिनः । प्रेक्षकश्रोत्रनुसन्धात्रादि स्थितास्तु रसस्य कार्याणि सन्तो व्यवस्थापकाः । विवृत्ति, पूर्वोक्त पृ० १४२ । ७. अत्र च रत्यादेर्विभावैराविर्भूतस्य पोषकारिणो व्यभिचारिणी रसिकगता एव ग्राह्याः । पूर्वोक्त पृ० १४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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