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________________ ११० ईश्वर दयाल जीवजीवी हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वा शुभादय इति । धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तम् ॥ आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क में यही प्ररूपणा की है । आचार्य अमृतचन्द्र इससे भी आगे जाकर कहते हैं : अतः शुद्धनयापत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्च कारित तत् । नव तत्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ।। निश्चय दृष्टि से देखने पर तो एकमात्र आत्म ज्योति ही जगमगाती है, जो इन नव तत्त्वों में धर्मीरूपेण अनुगत होते हुए भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती। जीव द्रव्य : मूल स्थिति जैन दर्शन छः द्रव्यों की सत्ता प्ररूपित करता है-जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल' । जीव द्रव्य-दृष्टि से एक है, पर्यायों की दृष्टि से अनेक है। यह उपयोग लक्षणात्मक है अर्थात् ज्ञान-दर्शनमय। तीनों कालों में ज्ञान-दर्शन के सतत परिवर्तन होने की दष्टि से यह अनेक क है। कभी न्यूनाधिक नहीं होने वाले प्रदेशों की दृष्टि से यह अक्षय है, अव्यय एवं अवस्थित है। भगवतीसूत्र में भगवान् ने इन्हीं सब अपेक्षाओं से अपने को एक, दो, अनेक, अक्षय और अव्यय बताया है। ___ "सोमिला दवट्टयाए एगे अहं नाण दंसणट्टयाए दुविहे अहं पएसट्टयाए अक्खए वि अहं अव्वए वि अहं अवट्रिए वि अहं उवयोगदाए अणेग भयभाव भविए वि अहं"। जीव अनन्त है। गुणात्मक दृष्टि से सब समान हैं। अनुभव, इच्छा-शक्ति और भाव उसके गुण हैं । वह ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। मूलतः जीव अशरीरी है। अरूप, अवेद, अलेश्य एवं अकर्म है। भगवतीसूत्र में भगवान ने कहा है-"गोयमा अहं एयं जाणाति जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स अकम्मस्स अवेदस्स अलेसस्स असरीरस्स ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एयं पन्नायति तं जहा कालत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा" । बन्ध मोक्ष की प्रक्रिया बन्ध अनादि काल से है। जीव शाश्वत रूप से बद्ध और मुक्त दोनों स्थितियों में अनन्त संख्यात्मक है। बन्ध कर्मों का होता है। कर्म पाप और पूण्य दो प्रकार के होते हैं। बन्ध का कारण आस्रव है जो मन-वचन-काय की क्रिया है, जो भावात्मक और द्रव्यात्मक दोनों प्रकार की होती है । संवर है आस्रव का रुक जाना, निर्जरा है तप द्वारा कृत कर्मों का क्षय तथा मोक्ष है इसकी निष्पत्ति । बन्ध से मोक्ष तक आत्मा की एक निरन्तर गति है, जिसका पर्यवसान मोक्ष में होता है-मोक्ष परिणति है और निर्वाण है स्थिति । एक पतली सी यही भेद रेखा यहां दृष्टिगोचर होती है-मोक्ष और निर्वाण में। १. श्लोकवार्तिक २।१।४। २. सन्मतितर्क, ११४६ । ३. समयसार कलश०७ । ४. आचार्य शुभचन्द्र, द्रष्टव्य तीर्थकर वर्द्धमान महावीर : पद्मचन्द्र शास्त्री पृ० ८२ । ५. भगवतीसूत्र १८।१० । ६. उपरिवत् १७१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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