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________________ ९४ डॉ० प्रेम सुमन जैन (१) भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, कलेक्शन नं० पांचवा ( १८८४-८७ ) ग्रन्थ नं० १९७० । (२) लीबड़ी जैन ग्रन्थ भण्डार, पोथी नं० ५७८ । (३) जैनानन्द ग्रन्थ भण्डार, गोपीपुरा, सूरत, पोथी नं० १६४८ । भीमसी मानेक, बम्बई द्वारा 'प्रकरणरत्नाकर' के भाग चार में एक 'इन्द्रिय पराजय शतक' प्रकाशित हुआ है । यह पुस्तक देखने को नहीं मिली। हो सकता है इसका और प्राकृत इंद्रियशतक का कोई सम्बन्ध हो । रचनाकार के नाम का उल्लेख कहीं नहीं है । इन्द्रियपराजय शतक पर सं० १६६४ में गुणविनय ने एक टीका भी लिखी है ।' प्राकृत इन्द्रियशतक का प्रारम्भ इस प्रकार होता हैआदि अंश अंतिम अंश ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ सोच व सूरो सो चेव पंडियो तं पसंसिमो निच्चं । इंदिय चोरेहि सया न लुहियं जस्स चरणघणं ॥ १ ॥ इंदिय चवला तुरगो दुग्गइ मग्गाणुधाविणो णिच्चं । भाविय भवस्स रूवो भइ जिणवयणरिस्सीहि ॥ २ ॥ इंदिय धुत्ताणमहो तिलंतुसमित्तंपि दिसु मा पसरो । जई दिण्णो तो नोउं जत्थ खणो वरिस कोडि समो ॥ ३ ॥ दुक्करामे एहि कयं जहि समत्थेहि जुवणच्छहि । भग्गाइ दिसणं धिइपायारं वि लग्गेहि ॥ ९९ ॥ ते धण्णा ताणं णमो दासोऽहं ताण संजमधाराणं । अह अहच्छि पिरीओ जाण ण हियए खुडकंति ॥ १०० ॥ कि बहुणा जइ वच्छसि जीव तुमं सासयं सुहं अरूअं । ता पिअसु विसइविमुह संवेगरसायणं णिच्चं ॥ ॥ इति श्रीइंद्रियशतक समाप्तं ॥ १०१ ॥ इस इंद्रिय शतक में कुल १०१ प्राकृत गाथाएँ हैं । इन गाथाओं के ऊपर पुरानी हिन्दी में टिप्पण भी लिखे हुए हैं। इनमें से कुछ उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य हैं गाथा - १ Jain Education International सोइ सूरमा पुरुष सोइ पुरुष पंडित ते हवइ प्रसंस्थज्यो इंदियरूपिया चोर सदा जेह नित्यं । तेहने नथी लूटाव्या चरितरूप धनु || ९. वही, पृ० ४०, कान्तिविजय जी का निजी संग्रह, बड़ौदा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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