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________________ डा० सागरमल जैन चूंकि जैन दर्शन किसी ऐसे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, जो "कर्म के नियम" का नियामक या अधिशास्ता है, अतः उसमें नैतिक और धार्मिक बाध्यता बाह्य आदेश नहीं अपितु, कम नियम की द्रष्टा अन्तरात्मा का ही आदेश है। उसमें बाध्यता तो है, किन्तु, यह बाध्यता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है और यदि वस्तु स्वभाव ही धर्म है, तो धार्मिक कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव बाहर से नहीं होकर अन्दर से ही होगा। जैन दर्शन में आत्मा का स्वभाव "समता" बताया गया है। अतः "समभाव की साधना" की कर्तव्यता का आधार बाहरी न होकर आन्तरिक है। इसी प्रकार प्राणीय प्रकृति का स्वाभाविक गुण जिजीविषा है और अहिंसा की नैतिक कर्तव्यता इसी जिजीविषा के कारण हैं। कहा गया है-"सभी जीना चाहते हैं कोई मरना नहीं चाहता"। अतः प्राण-वध का निषेध किया गया है । इस प्रकार जैन धर्म में चाहे समभाव की साधना की कर्तव्यता का प्रश्न हो या अहिंसा के व्रत के पालन का प्रश्न हो, उनकी बाध्यता अन्तरात्मा से ही आती है, वह किसी बाह्यतत्त्व पर आधारित नहीं है। जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों को अभिन्नता सामान्यतया कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म और नीति के बीच एक विभाजक रेखा खींची है और इसी आधार पर वे नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों में भी अन्तर करते हैं। वे नैतिक कर्तव्यता को “करना चाहिए" के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को "करना होगा" के रूप में लेते हैं। किन्तु, सामान्य रूप से भारतीय दार्शनिक और विशेष रूप से जैन दार्शनिक नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्यता को अभिन्न रूप से ही ग्रहण करते हैं। वे धर्म और नीति के बीच कोई सीमा रेखा नहीं खींचते हैं। भारत में धर्म शब्द का व्यवहार अधिकांश रूप में कर्तव्य एवं सप्तचार के अर्थ में ही हआ है और इस प्रकार वह नीतिशास्त्र का प्रत्यय बन जाता है। भारत में नीतिशास्त्र के लिए धर्मशास्त्र शब्द का ही प्रयोग हआ है। धर्म और नीति में यह विभाजन मख्यतया मानवीय चेतना के भावात्मक और संकल्पात्मक पक्षों के आधार पर किया गया है। पाश्चात्य विचारक यह मानते हैं कि धर्म का आधार विश्वास या श्रद्धा है. जबकि नैतिकता का आधार संकल्प है। धर्म का सम्बन्ध हमारे भावनात्मक पक्ष से है, जबकि नैतिकता का सम्बन्ध हमारे संकल्पात्मक पक्ष से है। सेम्युअल एलेक्जेण्डर के शब्दों में धार्मिक होना इससे अधिक कर्तव्य नहीं है, जैसे कि भूखा होना कोई कर्तव्य है। जिस प्रकार भूख एक मात्र सांवेगिक अवस्था है, उसी प्रकार धर्म भी एक सांवेगिक अवस्था है। विलियम जेम्स का कहना है कि "यदि हमें धर्म का कोई निश्चित अर्थ लेना है तो हमें उसे भावनाओं के अतिरेक और उत्साहपूर्ण आलिंगन के अर्थ में लेना चाहिए। जहाँ तथाकथित नैतिकता केवल सिर झुका देती है और राह छोड़ देती है।" वस्तुतः भारत में धर्म और नैतिकता दो अलगअलग तथ्य नहीं रहे हैं। मानवीय चेतना के भावनात्मक और संकल्पात्मक पक्षों को चाहे एक दूसरे से पृथक् देखा जा सकता हो, किन्तु, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। भावना विवेक और संकल्प, मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं। चूंकि मनुष्य एक समग्रता है, अतः ये तीनों पक्ष एक दूसरे के साथ मिले हुए हैं। इसीलिए मैथ्यू आरनॉल्ड को यह कहना पड़ा था कि भावनायुक्त नैतिकता ही धर्म है। पश्चिम में यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण रूप से चर्चित रहा है कि धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों में कौन प्राथमिक है ? डेकार्ट, लॉक प्रभृति अनेक विचारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012015
Book TitleAspect of Jainology Part 1 Lala Harjas Rai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages170
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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