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________________ जैन, बौद्ध और गीता का समाज दर्शन समीक्षक - डॉ० रेवतीरमण पाण्डेय समाज दर्शन स्वतन्त्र दर्शन की शाखा में न तो ग्रीक दर्शन में कहीं मिलता है और न ही भारतीय दर्शन में । भारतीय दर्शन तो लोक दर्शन है किन्तु इधर समाज दर्शन की एक नयी शाखा के रूप में उभरकर अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है । भारतीय चिन्तन धारा में पाश्चात्य चिन्तन धारा के समानान्तर समाज दर्शन की प्रतिष्ठा भारतीय स्वातन्त्र्योत्तर काल की देन है । इस परिप्रेक्ष्य में इस सारगर्भित लघुपुस्तक के विद्वान् लेखक डॉ० सागरमल जैन को हम हार्दिक बधाई देते हैं। समाज दर्शन के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तन की तीन समृद्ध परम्पराओं (जैन,बौद्ध और गीता) में यह अवदान सर्वथा नया है। विद्वान् लेखक ने परम्पराओं की तलहटी में बैठकर उनके सार्थक पक्षों का सम्यक् अनुशीलन कर इस अध्ययन को प्रस्तुत किया है । ब्रैडले ने ठीक ही कहा है कि 'मनुष्य यदि सामाजिक नहीं तो वह पशु है, मनुष्य के शैशवकाल से ही उसके व्यक्तित्व के विकास में चिदंश अपने स्वरूप के साक्षात्कार हेतु व्यष्टि से समष्टि के प्रति उन्मुख होता है । उसका अस्तित्व सबके साथ, सबके लिए सबका होकर जीने में सार्थकता का बोध कराता है । वह विराट के प्रति जितना अधिक उन्मुख होता है, वह उतना ही अधिक अपने अस्तित्व को सार्थक पाता है । व्यष्टि की सार्थकता समष्टि हो जाने में है। स्वतन्त्रता की अर्द्धशती के अवसर पर आज हम सभी बुद्धिजीवियों का यह नैतिक दायित्व है कि गत पचास वर्षों में हम अपना और अपने राष्ट्र के राष्ट्रीय चरित्र को उभारने में कितना सफल हुए हैं, का आलोडन-विलोडन करें। भारतीय चिन्तन की तीनों परम्पराओं में 'सर्वभूतहिते रत:' वह केन्द्र बिन्दु है, वह उत्स है जिससे चिन्तन की सभी विधाओं को ऊर्जा एवं दिशा मिलती है । इस दृष्टि से किसी भी समाज का उदय तब तक सार्थक उदय नहीं होगा जब तक स्वयं व्यक्ति अपना निर्माण नहीं करता । यदि व्यक्ति चरित्रवान् है तो समाज का चरित्र, राष्ट्र का चरित्र महनीय होगा । आज राष्ट्र को पुनः एक कृष्ण चाहिए जो कौरवों के भ्रष्ट तन्त्र का उन्मूलन कर 'सत्य मेवजयते' पर प्रतिष्ठित राष्ट्र में एक स्वच्छ, स्वस्थ एवं लोक कल्याणपरक राष्ट्रीय चेतना से भरपूर जनतन्त्र की प्रतिष्ठा कर नव चेतना का मन्त्र फूंके । इस दृष्टि से प्रोफेसर जैन की यह लघु पुस्तक बड़ी ही उपादेय है। इस पुस्तक में वैदिक चिन्तन के परम सन्देश - समानी वा आकूति: समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।। x x x x x x x x x x x x x x शत-हस्त समाहर सहस्त्रहस्त: सीकरः । को 'ईशावास्यमिदम् सर्वं' पर प्रतिष्ठित कर (तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः) का संदेश दिया है। यही अनुशासन आचार्य समन्तभद्र तीर्थंकर की वाणी के माध्यम से देते हैं - सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' सभी के दुःख का अन्त सभी का कल्याण । इस दिशा में आचार्य शांति देव का संदेश कितना सार्थक है - . सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः । त्यक्तवं स चेन्मया सर्वं वरं सत्त्वेषु दीयतात् ।। प्रोफेसर सागरमल जैन के इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का अन्त सर्वोदय की कामना से होता है - सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयाम् ।। द्वितीय अध्याय के स्वहित बनाम लोकहित के विभिन्न पक्षों पर जैन एवं बौद्ध परम्परा में सम्यक् विचार किया गया है । तृतीय अध्याय में वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीनों परम्पराओं में सम्यक् प्रतिपादन किया गया है । चतुर्थ अध्याय में स्वधर्म की अवधारणा पर गीता, जैन दृष्टियों के साथ ब्रैडले के स्वस्थान और उसके कर्तव्य का सिद्धान्त का समावेश कर पुस्तक को आधुनिक बना दिया गया है। इस अध्याय में प्लेटो के भी विचार को रखकर एक समग्र चिंतन इस विषय पर और भी उपादेय होता। पंचम अध्याय में अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर तीनों परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में प्रभूत सामग्री प्रस्तुत की गयी है उनका सम्यक् विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है । यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थ विस्तार-पुस्तक को अधिक सार्थक और आकर्षक बना देता है । षष्ठ अध्याय में सामाजिक धर्म एवं दायित्व पर सम्यक् विवेचन किया गया है । इस अध्याय में ग्राम धर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, गृहस्थवर्ग के सामाजिक दायित्व, भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा, बौद्ध परम्परा में सामाजिक धर्म एवं वैदिक परम्परा में सामाजिक धर्म पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है। 'प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८२ मूल्य - रु-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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