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________________ खजुराहो की कला और जैनाचार्यों की समन्वयात्मक एवं सहिष्णु दृष्टि ७२१ दृष्टि में इसका उद्देश्य जैन श्रमणों की समाज में जो प्रतिष्ठा थी उसे नीचे समीक्षा भी की है, किन्तु, इसके बावजूद खजुराहो के जैन मन्दिरों में गिराना था। प्रो० त्रिपाठी ने जैन श्रमणों की विष्य-लम्पटता के अपने हिन्दू देवमण्डल के अनेक देवों का सपत्नीक अंकन क्या जैनाचार्यों की निष्कर्ष की पुष्टि के लिए "प्रबोधचन्द्रोदय" का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया उदार भावना का परिचायक नहीं माना जा सकता ? जिसमें जैन क्षपणक (मुनि) के मुख से यह कहलवाया है वस्तुत: सामन्यतया जैन श्रमण न तो आचार में इतने पतित दूर चरण प्रणामः कृतसत्कारं भोजनं च मिष्टम् । थे जैसा कि उन्हें अंकित किया गया है और न वे असहिष्ण ही थे। यदि ईर्ष्यामलं न कार्य ऋषिणां दारान् रमणमाणानाम् ।।४ वे चारित्रिक दृष्टि से इतने पतित होते तो फिर वासवचन्द्र महाराजा धंग अर्थात्, ऋषियों की दूर से चरण वंदना करनी चाहिए, उन्हें सम्मान पूर्वक की दृष्टि में सम्मानित कैसे होते ? खजुराहो के अभिलेख उनके जनमिष्ट भोजन करवाना चाहिए और यदि वे स्त्री से रमण भी करें तो भी समाज पर व्यापक प्रभाव को सूचित करते हैं। कोई भी विषय लम्पट ईर्ष्या नहीं करना चाहिए। श्रमण जन-साधारण की श्रद्धा का केन्द्र नहीं बन सकता है । यदि जैन प्रो० त्रिपाठी का यह प्रमाण इसलिए लचर हो जाता है कि यह श्रमण भी विषय-लम्पटता में वज्रयानी बौद्ध श्रमणों एवं कापलिकों का भी विरोधी पक्ष ने ही प्रस्तुत किया है । प्रबोधचन्द्रोदय नाटक का मुख्य अनुसरण करते तो कालान्तर में नाम शेष हो जाते। जैन श्रमणों पर समाज उद्देश्य ही जैन-बौद्ध श्रमणों को पतित तथा कापलिक (कौल) मत की का पूरा नियन्त्रण रहता था । दुश्चरित्र श्रमणों को संघ से बहिष्कृत करने ओर आकर्षित होता दिखाना है । वस्तुत: ये समस्त प्रयास जैन श्रमणों का विधान था, जो वर्तमान में भी यथावत् है । खजुराहो के जगदम्बी की सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के निमित्त ही थे। यह सत्य है आदि मन्दिरों में जैन श्रमणों का जो चित्रण है वह मात्र ईर्ष्यावश उनके कि इस युग में जैन श्रमण अपने निवृत्तिमार्गी कठोर संयम और देह तितीक्षा चरित्र-हनन का प्रयास था । यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि के उच्च आदर्श से नीचे उतरे थे। संघ रक्षा के निमित्त वे वनवासी से ये अंकन सामान्य हिन्दू परम्परा के जैनों के प्रति अनुदार दृष्टिकोण के चैत्यवासी (मठवासी) बने थे। तन्त्र के बढ़ते हुए प्रभाव से जन-साधारण परिचायक नहीं हैं । क्योंकि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति सदैव ही जैनधर्म से विमुख न हो जाये -- इसलिए उन्होंने भी तन्त्र चिकित्सा एवं उदार और सहिष्णु रहा है। यदि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति अनुदार ललित कलाओं को अपनी परम्परा के अनुरूप ढाल कर स्वीकार कर होता तो उनका अस्तित्व समाप्त हो गया होता। यह अनदार दृष्टि केवल लिया था। किन्तु वैयक्तिक अपवादों को छोड़कर, जो हर युग और हर कौलों और कापलिकों की ही थी, क्योंकि इनके लिये जैन श्रमणों की सम्प्रदाय में रहे हैं, उन्होंने वाममार्गी आचार-विधि को कभी मान्यता नहीं चरित्रनिष्ठा ईर्ष्या का विषय थी । ऐतिहासिक आधारों पर भी कौलों और दी । जैन श्रमण परम्परा वासनापूर्ति की स्वछन्दता के उस स्तर पर कभी कापलिकों के असहिष्णु और अनुदार होने के अनेक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं उतरी, जैसा कि खजुराहो के मन्दिरों में उसे अंकित किया गया है। होते है। इन दोनों परम्पराओं का प्रभाव खजुराहो की कला पर देखा जाता वस्तुत: इस प्रकार के अंकनों का कारण जैन श्रमणों का चारित्रिक पतन है। जैन श्रमणों के सन्दर्भ में ये अंकन इसी प्रभाव के परिचायक हैं। नहीं है, अपितु धार्मिक विद्वेष और असहिष्णुता की भावना है । स्वयं सामान्य हिन्दू परम्परा और जैन परम्परा में सम्बन्ध मधुर और सौहार्दपूर्ण प्रो० त्रिपाठी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए लिखते हैं - ही थे। The existence of these temples of different faiths पुन: जगदम्बी मन्दिर के उस फलक की जिसमें क्षपणक अपने at one site has generally,upto now, been taken indicative of विरोधी के आक्रोश की स्थिति में भी हाथ जोड़े हुए हैं, व्याख्या जैन श्रमण an atmosphere of religious toleration and amity enabling की सहनशीलता और सहिष्णुता के रूप में भी की जा सकती है। अनेकांत peaceful co-existence. This long established notion in the और अहिंसा के परिवेश में पले जैन श्रमणों के लिए समन्वयशीलता और light of proposed interpretation of erotic secnes requires सहिष्णुता के संस्कार स्वाभाविक हैं और इनका प्रभाव खजुराहो के जैन modification. There are even certain sculptures on the मन्दिरों की कला पर स्पष्ट रूप देखा जाता है। temples of khajuraho, which clearly reveal the existence of सन्दर्भ religious rivalary and conflict at the time (Ibid, p.99-100) १. दारचेडीओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्येणं पमज्जई किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार के विद्वेष - राजप्रश्नीय (मधुकरमुनि), २०० पूर्ण अंकन जैन मन्दिरों में हिन्दू संन्यासियों के प्रति भी हैं ? जहाँ तक २. हरिवंशपुराण, २९/२-५ मेरा ज्ञान है खजुराहो के जैन मन्दिरों में एक अपवाद को छोड़कर प्रायः ३. (अ) आदिपुराण, ६/१८१ ऐसे अंकनों का अभाव है और यदि ऐसा है तो वह जैनाचार्यों की उदार (ब) खजुराहो के जैन मन्दिरों की मूर्तिकला, रत्नेश वर्मा, पृ. ५६ से ६२ और सहिष्ण दृष्टि का ही परिचायक है। यद्यपि यह सत्य है कि इसी ४. प्रबोधचन्द्रोदय, अंक ३/६ युग के कतिपय जैनाचार्यों ने धर्म-परीक्षा जैसे ग्रन्थों के माध्यम से ५. (अ) पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २६ सपत्नीक सराग देवों पर व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं और देव मूढ़ता, गुरू मूढ़ता (ब) धूर्ताख्यान, हरिभद्र और धर्म मूढ़ता के रूप में हिन्दू परम्परा में प्रचलित अन्धविश्वासों की (स) यशस्तिलकचम्पू (हन्डिकी), पृ. २४९-२५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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