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________________ जैनागम-धर्म में स्तूप ७१५ -जावान यह सत्य है कि यहाँ बौद्ध परम्परा में बुद्ध के बाद शताब्दियों तक “साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा"। प्रतीकपूजा के रूप में स्तूप-पूजा प्रचलित रही और बुद्ध की मूर्तियाँ बाद -वही, ४/२१ में बनने लगीं। जबकि जैन परम्परा में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से जिन- (ग). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा..... थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु मूर्तियाँ बनने लग गयी थीं। अत: जैनों में स्तूप बनाने की प्रवृत्ति आगे वा.....तहप्पगारं असणं व पाणं वा....णो पडिगाहेज्जा। अधिक विकसित नहीं हो सकी। किन्तु जैन परम्परा में स्तूप-पूजा एवं -वही, १/२४॥ स्तूप-निर्माण की परम्परा थी, इसके भी अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। प्रथम २. .......तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा तो जैनधर्म के यापनीयसंघ की एक शाखा का नाम पंचस्तूपान्वय था। पण्णत्ता।। सम्भव है मथुरा के पंचस्तूपों की उपासना के कारण इसका यह नाम पड़ा -थानांग, ४/३३९। हो। मथरा यापनीय संघ का केन्द्र रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि ३. (क).चिति-वेदि-खातिय-आराम-विहार-थूभ.....य अट्ठाए पुढविं जैनों में स्तूपपूजा की पद्धति थी। मथुरा के एक शिलाखण्ड के बीच मे हिंसंति मंदबुद्धिया। स्तूप का अंकन है और उसके आसपास जिन-प्रतिमाएँ हैं, इससे भी हम -प्रश्नव्याकरण, १/१४। इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि जैनों में कुछ काल तक स्तूप-निर्माण और ४. तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथभे पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया स्तूप-पूजा प्रचलित थी। वैशाली में मुनिसुव्रत स्वामी के स्तूप का जिणपडिमा। साहित्यिक संकेत है। -जीवाभिगम, ३/२/१४२। यह तर्क कि मथुरा का स्तूप मूलतः बौद्ध स्तूप था और ५. .....खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ तित्थगरचिइगं जावअणगारचिइगं परवर्तीकाल में बौद्धों के निर्बल होने से उस पर जैनों ने अधिकार कर च खीरोदगेणं णिवावेह, तए णं ते मेहकमारा देवा तित्थगरचिइगं लिया, युक्तिसंगत नहीं लगता, क्योंकि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी जाव णिव्वावेंति, तए णं से सक्के देविंदे देवराया भगवओ से ही इसके जैन-स्तूप के रूप में उल्लेख मिलने लगते हैं और उस काल तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ......तए णं से सक्के तक मथुरा के बौद्ध निर्बल नहीं हुए थे, अपितु शक्तिशाली एवं प्रभावशाली वयासी सव्वरयणामए महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह। बने हुए थे। पुन: मथुरा से उपलब्ध आयागपटों पर मध्य में जिन-प्रतिमा . -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३३। और उसके आस-पास अष्टमांगलिक चिह्नों के साथ स्तूप का भी अंकन ६. निव्वाणं चिइगाई जिणस्स इक्खाग सेसयाणं च। मिलता है। इससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि जैनों में स्तूपनिर्माण और सकहा थूभ जिणहरे जायग तेणाहिअग्गित्ति।। स्तूपपूजा की परम्परा का अस्तित्व रहा है। यापनीय नामक प्रसिद्ध जैन -आवश्यक नियुक्ति, ४५।। संघ की एक शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय है। यदि ये प्रमाण नहीं ७. (क). तएणं से सक्के बहवे भवणपति जाव वेमाणिया एवं मिलते तो निश्चित ही इसे मूलत: बौद्ध स्तूप स्वीकार किया जा सकता वयासीखिप्पामेव भो तओ चेइअ-थूभे करेह। था। मैंने यहाँ पक्ष-विपक्ष की सम्भावनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न -आवश्यक चूर्णि, ऋषभनिर्वाण प्रकरण, पृ०२२३। किया है, विद्वानों को किसी योग्य निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करना (ख). थूभाणं एगं तित्थगरस्स व सेसाणं एगूणस्स भाउय सयस्स। चाहिए। फिर भी इस समग्र अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुँचा -आवश्यक चूर्णि, अष्टपद चैत्य प्रकरण, पृ०२२७/ हूँ कि जैन धर्म में स्तूपनिर्माण एवं स्तूपपूजा की पद्धति जैनेतर परम्पराओं ८. (क), एमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तच्छन्दकहमादी। से विशेष रूप से बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुई, पुन: वह बिइयं गिलाणतो मे, अद्धाणे चेव थूभे य।।। चरण-चौकी(पगलिया जी), चैत्य-स्तम्भ और जिन-मन्दिरों के विकास (ख). महुरा खमगा य, वणदेवय आउट्ट आणविज्जत्ति। के साथ धीरे-धीरे विलुप्त हो गई है। किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्ज।। थूभ वि उ घण भिच्छू विवाय छम्मास संघो को सत्तो। सन्दर्भ खमगुस्सग्गा कंपण खिंसण सुक्का कय पडागा।। * 'बौद्ध स्तूप पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (संगोष्ठी -व्यवहार चूर्णि, पंचम उद्देशक, २६, २७, २८। (प्रा०भा०सं० एवं पु० विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, ९. प्रो० मधुसूदन ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर उनका यह वाराणसी) में पठित निबन्ध। मत प्रस्तुत किया गया है। (क). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे......रुक्खं १०. “कडमाणे कडे" - भगवती सत्र, १/१/१। वा चेइय-कर्ड, थूभं वा चेइयकडं......णो.......णिज्झाएज्जा। ११. "In both the above-mentioned cases, namely, cetita-आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध-आयारचूला), ३/४७/ thubha and the cetitarukkha, the sense of a funeral (ख). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई.....रुक्खं relic is not fully warranted." वा चेइय-कडं......णो....सुकडे ति वा, सुट्ठकडे ति वा, ---Studies in Jain Art, U.P. Shah, P. 53. माण आर (द्वितीय श्रुतस्कमाई.............रुक्खं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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