SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 841
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी या शौरसेनी ७०९ यह दिगम्बर आगमों की अथवा नाटकों की शौरसेनी प्राकृत कदापि नहीं यह घोषणा नहीं की है कि अशोक के अभिलेखों की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। दिगम्बर आगमों की शौरसेनी के दो प्रमुख लक्षण माने जा सकते हैं- है। वस्तुत: वह मागधी और अन्य प्रादेशिक बोलियों के शब्द-रूपों से मध्यवर्ती त के स्थान पर द का प्रयोग- और दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य मिश्रित एक ऐसी भाषा है, जिसकी सर्वाधिक निकटता जैन-आगमों की 'ण' का प्रयोग। अशोक के अभिलेखों में मध्यवर्ती त के स्थान पर द अर्धमागधी से है। उसे शौरसेनी कहकर जो भ्रान्ति फैलाई जा रही है वह का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता है। शौरसेनी प्राकृत में संस्कृत 'भवति' सुनियोजित षड्यंत्र है। वस्तुतः दिगम्बर आगमतुल्य ग्रन्थों की जिस भाषा का भवदि' या 'होदि' रूप मिलता है जबकि अशोक के अभिलेखों में को परिशुद्ध शौरसेनी कहा जा रहा है वह न तो व्याकरण-सम्मत शौरसेनी एक स्थान पर भी 'होदि' रूप नहीं पाया जाता। सर्वत्र ही 'होति' रूप पाया है और न नाटकों की शौरसेनी है, अपितु अर्धमागधी, शौरसेनी और जाता है, जो अर्धमागधी का लक्षण है। इसी प्रकार 'पितृ' शब्द का पिति' महाराष्ट्री की ऐसी खिचड़ी है, जिसमें इनके मिश्रण के अनुपात भी प्रत्येक या 'पितु' रूप मिलता है जो कि अर्धमागधी का लक्षण है, शौरसेनी की ग्रन्थ और उसके प्रत्येक संस्करण में भिन्न-भिन्न हैं। इसकी विस्तृत चर्चा दृष्टि से तो उसका 'पिदु' रूप होना था। इसी प्रकार 'आत्मा' शब्द का मैंने अपने लेख 'जैन आगमों की मूलभाषा मागधी या शौरसेनी' में की शौरसेनी प्राकृत में में 'आदा' रूप बनता है। जबकि अशोक के अभिलेखों है। शौरसेनी का साहित्यिक भाषा के रूप में तब तक जन्म ही नहीं हुआ में कहीं भी 'आदा' रूप नहीं मिला है। सर्वत्र अत्ने, अत्ना यही रूप मिलते था। नाटकों एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों की भाषा हैं। इसी प्रकार 'हित' का शौरसेनी रूप 'हिद' न मिलकर सर्वत्र ही 'हित' तो उसके तीन-चार सौ वर्ष बाद अस्तित्व में आई है। वस्तुत: देहली, शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार जहाँ शौरसेनी दन्त्य 'न' के प्रयोग मथुरा एवं आगरा के समीपवर्ती उस प्रदेश में जिसे शौरसेनी का जन्मस्थल के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग पाया जाता है वहां अशोक के कहा जाता है, अशोक के जो भी अभिलेख उपलब्ध हैं, उनमें शौरसेनी मध्यभारतीय समस्त अभिलेखों में मूर्धन्य 'ण' का पूर्णत: अभाव है और के लक्षणों यथा 'त' का 'द', 'न' का 'ण' आदि का पूर्ण अभाव है। मात्र सर्वत्र दन्त्य 'न' का प्रयोग हुआ है, पश्चिमी अभिलेखों में भी मूर्धन्य 'ण' यहीं नहीं उसमें 'लाजा' (राजा) जैसा मागधी का शब्द-रूप ही स्पष्टतः का यदा-कदा ही प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वत्र नहीं। पुन: यह मूर्धन्य ‘ण' पाया जाता है। इसी प्रकार गिरनार के अभिलेखों में भी शौरसेनी के का प्रयोग तो महाराष्ट्री प्राकृत में भी पाया जाता है। अशोक के अभिलेखों व्याकरण सम्मत लक्षणों का अभाव है। उनमें अर्धमागधी के वे शब्दकी भाषा के भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें जहाँ तक रूप, जो शौरसेनी में भी पाये जाते हैं देखकर यह कह देना कि अशोक मेरी जानकारी है, किसी एक भी विद्वान् ने उनकी भाषा को शौरसेनी प्राकृत के अभिलेख शौरसेनी में हैं, एक भ्रामक प्रचार है। वस्तुतः अशोक के नहीं कहा है। यदि उसमें एक दो शौरसेनी शब्द रूप जो अन्य प्राकृतों अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय प्रभावों से युक्त मागधी है। उसे अर्धमागधी यथा अर्धमागधी या महाराष्ट्री में भी कामन' मिल जाते हैं तो उसकी भाषा तो माना जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं माना जा सकता है। को शौरसेनी तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए शायद प्रो० पाठकों को स्वयं निर्णय करने के लिए हम परिशिष्ट के रूप में देहलीभोलाशंकर जी व्यास को भी दबी जबान से यह कहना पड़ा कि शौरसेनी टोपरा के अशोक के अभिलेखों के मूलपाठ दे रहे हैं। प्राकृत के प्राचीनतम रूप सम्राट अशोक के गिरनार शिलालेख में मिलते देहली-टोपरा स्तम्भ हैं। सम्भवत: इसमें इतना संशोधन अपेक्षित है कि शौरसेनी प्राकृत के प्रथम अभिलेख (उत्तराभिमुख) कुछ प्राचीन शब्द-रूप गिरनार के शिलालेख में मिलते है। किन्तु यह (धर्म पालन से इहलोक तथा परलोककी प्राप्ति) बात ध्यान देने योग्य है कि यह शब्द रूप प्राचीन अर्धमागधी और महाराष्ट्री में भी मिलते हैं, अत: मात्र दो-चार शब्द-रूप मिल जाने से अशोक के देवानंपिये पियदसि लाज हेवं आहा (१) सडुवीसतिअभिलेख शौरसेनी प्राकृत के नहीं माने जा सकते हैं। क्योंकि उनमें वस अभिसितेन मे इयं धंमलिपि लिखापिता (२) शौरसेनी के विशिष्ट लक्षणों वाले शब्द रूप नहीं मिलते हैं। उसके आगे हिदतपालते दुसंपटिपादये अंनत अगाया धमकामताया समादरणीय भोलाशंकर जी व्यास को उद्धृत करते हुए डा० सुदीप जैन अगाय पलीखाया अगाय सुसूयाया अगेन भयेन ने लिखा है कि इसके बाद परिशुद्ध शौरसेनी भाषा कषायपाहुडसुत्त, अगन उसाहेना (३) एस चु खो मम अनुसथिया धंमा-' षट्खण्डागमसुत्त, कुन्दकुन्द साहित्य एवं धवला, जयधवला आदि में , पेखा धमकामता चा सुवे सुवे वडिता वडीसति चेवा (४) प्रयुक्त मिलती है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अशोक के अभिलेखों पुलिसा पि च मे उकसा चा गेवया चा मझिमा चा अनुविधीयंती की मागधी अर्थात् अर्धमागधी से ही दिगम्बर जैन साहित्य की परिशुद्ध संपटिपादयंति चा अलं चपलं समादपयितवे (५) हेमेमा अंतशौरसेनी विकसित हुई है। मैं यहाँ स्पष्ट रूप से यह जानना चाहूँगा कि महामाता पि(६) एस हि विधि या इयं धमेन पालना धमेन विधाने क्या अशोक के अभिलेखों की भाषा में दिगम्बर जैन साहित्य को १०. धंमेन सखियना धमेन गोती ति (७) तथाकथित परिशुद्ध शौरसेनी अथवा नाटकों की शौरसेनी अथवा । द्वितीय अभिलेख (उत्तराभिमुख) व्याकरण-सम्मत शौरसेनी का कोई भी विशिष्ट लक्षण उपलब्ध होता है, (धर्म की कल्पना) जहां तक मेरी जानकारी है। आजतक किसी भी भाषाशास्त्र के विद्वान् ने देवानंपिये पियटमि लाज my ci Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy