SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 826
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ३/५३ ३/६९ उल्लेख को स्वीकार किया है।९। यद्यपि इन लेखों में काणूरगण के इन सम्बद्ध नहीं रहे हैं । यदि वे पाँचवी शती के पश्चात् हुए हैं तो निश्चित ही सिंहनन्दि को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दान्वय का बताया गया है। श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं तो अधिक से अधिक श्वेताम्बर और लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है जब यापनीय यापनीय परम्परा की पूर्वज उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे हैं। गण भी अपने को मूलसंघ से जोड़ने लगे थे। पुन: इन लेखों में सिंहनन्दि उनके 'सन्मति तर्क' में क्रमवाद के साथ-साथ युगपवाद की समीक्षा, का काणूरगण के आधाचार्य के रूप में उल्लेख है । उनकी परम्परा में आगमिक परम्परा का अनुसरण, कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में होना आदि प्रभाचन्द्र, गुणचन्द्र, माघनन्दि, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, मुनिचन्द्र, प्रभाचंद तथ्य इस संभावना को पुष्ट करते हैं । वराङ्गचरित के २६ वें सर्ग के अनेक आदि का उल्लेख है- यह लेख तो बहुत समय पश्चात् लिखा गया है । पुनः श्लोक 'सन्मति तर्क' के प्रथम और तृतीय काण्ड की गाथाओं का संस्कृत इन लेखों में भी प्रारम्भ में जटासिंहनन्दि आचार्य का उल्लेख है, वहां न तो रूपांतरण मात्र लगते हैं - मूलसंघ का उल्लेख है और न कुन्दकुन्दान्वय का । वहां मात्र काणूरगण का देखें - उल्लेख है। यह काणूरगण प्रारम्भ में यापनीय गण था । अत: सिद्ध है कि वराङ्गचरित सन्मति तर्क वराङ्गचरित सन्मति तर्क जटासिंहनन्दि काणूरगण के आधाचार्य रहे होंगे । इन शिलालेखों में २६/५२ १/६ २६/६५ १/५२ सिंहनन्दि को गंग वंश का समुद्धारक कहा गया है। यदि गंग वंश का प्रारम्भ २६/५३ २६/६९ ३/४७ ई० सन् चतुर्थ शती माना जाता है तो गंगवंश के संस्थापक सिंहनन्दि २६/५४ १/११ २६/७० ३/५४ जटासिंहनन्दि से भिन्न होने चाहिए । पुन: काणूरगण का अस्तित्व भी ई० । २६/५५ १/१२ २६/७१ ३/५५ सन् की ७ वीं-८ वीं शती के पूर्व ज्ञात नहीं होता है । सम्भावना यही है २६/५७ १/१७ २६/७२ कि जटासिंहनन्दि काणूरगण के आद्याचार्य रहे हों और उनका गंग वंश पर २६/५८ १/१८ २६/७८ अधिक प्रभाव रहा हो । अत: आगे चलकर उन्हें गंगवंश का उद्धारक मान २६/६० १२२१ २६/९० ३/६९ लिया गया हो तथा गंगवंश के उद्धार की कथा उनसे जोड़ दी गई हो। २६/६१ १/२५ २६/९९ ३/६७ ३. जन्न ने अनन्तनाथ पुराण में न केवल जटासिंहनन्दि का २६/६२ १/२३-२४ २६/१०० ३/६८ उल्लेख किया है अपितु उनके साथ-साथ ही काणूरगण के इन्द्रनन्दि आचार्य २६/६३ १/२५ का भी उल्लेख किया है । हम छेदपिण्ड शास्त्र की परम्परा की चर्चा करते २६/६४ समय अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि जटासिंहनन्दि के वराङ्गचरितकार जटासिंहनन्दि द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण समकालीन या उनसे किंचित् परवर्ती ये इन्द्रनन्दि रहे हैं जिनका उल्लेख इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं। शाकटायन आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है। जन्न ने जटासिंहनन्दि सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों और यापनीयों के और इन्द्रनन्दि दोनों को काणूरगण का बताया है । इससे उनके कथन में कारण पुन्नाटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा अविश्वसनीयता जैसी कोई बात नहीं लगती है। जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि उस यापनीय अथवा ४. कोप्पल में उपलब्ध (पुरानी कन्नड़ में) एक लेख भी उपलब्ध कूर्चक परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे जो अनेक बातों में श्वेताम्बरों की होता है जिसके अनुसार जटासिंहनन्दि के चरण-चिह्नों को चाव्वय ने आगमिक परम्परा के निकट थी। यदि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों बनवाया था२२ । इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि का समाधिमरण के पूर्वज आचार्य हैं तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण संभव सम्भवत: कोप्पल में हुआ हो । पुन: डॉ० उपाध्ये ने गणभेद नामक है। अप्रकाशित कन्नड़ ग्रंथ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या ७. वराङ्गचिरत में, अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं कोपन यापनीयों की मुख्य पीठ थी२३ । अत: कोप्पल/कोपन से सम्बन्धित नियुक्तियों का अनुसरण किया गया है। सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया होने के कारण जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की सम्भावना अधिक प्रबल है - “वराङ्गमुनि ने अल्पकाल में ही आचारांग और अनेक प्रकीर्णकों का प्रतीत होती है। सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का अध्ययन किया२५। ५. यापनीय परम्परा में मुनि के लिए 'यति' का प्रयोग अधिक इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । विषयवस्तु की दृष्टि प्रचलित रहा है । यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन को 'यतिग्रामाग्रणी' से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है। विशेष कहा गया है । हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दि के इस वराङ्गचरित में भी रूप से स्वर्ग, नरक, कर्मसिद्धांत आदि सम्बन्धी विवरण में उत्तराध्ययन मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ है । ग्रन्थकार सूत्र का अनुसरण हुआ है । जटासिंहनन्दि ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्म की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है। सिद्धांत का विवरण दिया है उसके अनेक श्लोक अपने प्राकृत रूप में ६. वराङ्गचरित में सिद्धसेन के “सन्मति तर्क" का बहुत उत्तराध्ययन के तीसवें कर्म प्रकृति नामक अध्ययन में यथावत् मिलते हैं - अधिक अनुसरण देखा जाता है। अनेक आधारों से यह सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन वराङ्गचरित सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा-से ३०/२-३ ४/२-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy