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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ६८२ है किन्तु वृत्ति अनुपलब्ध है। जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख भी किया गया है। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का उल्लेख नहीं है । । ६. चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा ) चैत्यवन्दन के - सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना की है। यह कृति बौद्ध परम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृत मिश्रित संस्कृत में रची गयी है। यह ग्रंथ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले प्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाणं), चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धार्णबुद्धा), प्रणिधान सूत्र (जय-वीवराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा गया है। मुख्यतः तो यह प्रन्थ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की है । इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय मान्यता के आधार पर स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है। ७. प्रज्ञापना- प्रदेश व्याख्या इस टीका के प्रारम्भ में जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है। भव्य और अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के विषय, कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प - बहुत्व, आयुर्बन्ध का अल्पबहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव विचार, लोक सम्बन्धी अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्पबहुत्व, द्रव्याल्पबहुत्व अवगाडाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है। अष्टम पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है। नवम पद में विविध योनियों एवं दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन किया गया है। ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों को बताया गया है। बारहवें पद में औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया गया है। आगे के पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, योग लेश्या, काय स्थिति, अन्तः क्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया कर्म प्रकृति, कर्म-बन्ध, आहार परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें Jain Education International पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग के आठ प्रकार और साकार पश्यता के छः प्रकार बताए गए हैं 1 आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियाँ षोडशक इस कृति में एक-एक विषयों को लेकर १६-१६ पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने १६ षोडशकों की रचना की है। ये १६ षोडशक इस प्रकार हैं- (१) धर्मपरीक्षाषोडशक, (२) सद्धर्मदेशनाषोडषक, (३) धर्मलक्षणषोडशक (४) धर्मलिंगषोडशक, (५) लोकोत्तरतत्त्वप्राप्तिषोडशक, (६) जिनमंदिर निर्माणषोडशक, (७) जिनबिम्बषोडशक (८) प्रतिष्ठाषोडशक, (९) पूजास्वरूपषोडशक, (१०) पूजाफलषोडशक, (११) श्रुतज्ञानलिङ्गघोडशक, (१२) दीक्षाधिकारियोडशक, (१३) गुरुविनयषोडशक, (१४) योगभेद षोडशक, (१५) ध्येयस्वरूपषोडशक (१६) समरसघोडशक इनमें अपने-अपने नाम के अनुरूप विषयों की चर्चा है। । विंशतिविंशिका विंशतिविंशिका नामक आचार्य हरिभद्र की यह कृति २०-२० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। ये विंशिकाएँ निम्नलिखित हैं-प्रथम अधिकार विंशिका में २० विंशिकाओं के विषय का विवेचन किया गया है। द्वितीय विंशिका में लोक के अनादि स्वरूप का विवेचन है। तृतीय विंशिका में कुल, नीति और लोकधर्म का विवेचन है। चतुर्थ विंशिका का विषय चरमपरिवर्त है। पाँचवीं विंशिका में शुद्ध धर्म की उपलब्धि कैसे होती है, इसका विवेचन है। छठीं विंशिका में सद्धर्म का एवं सातवीं विंशिका में दान का विवेचन है। आठवीं विंशिका में पूजा-विधान की चर्चा है। नवीं विंशिका में श्रावकधर्म, दशवीं विंशिका में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं ग्यारहवीं विंशिका में मुनिधर्म का विवेचन किया गया है । बारहवीं विंशिका भिक्षा-विंशिका है। इसमे मुनि के भिक्षा सम्बन्धी दोषों का विवेचन है । तेरहवीं, शिक्षा-विंशिका है। इसमें धार्मिक जीवन के लिये योग्य शिक्षाएँ प्रस्तुत की गई हैं। चौदहवीं अन्तरायशुद्धि विंशिंका में शिक्षा के सन्दर्भ में होने वाले अन्तरायों का विवेचन है। ज्ञातव्य है कि इस विंशिका में मात्र छः गाथाएं ही मिलती हैं, शेष गाथाएँ किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती हैं। पन्द्रहवीं आलोचना-विंशिका है। सोलहवीं विंशिका प्रायश्चित्तविंशिका है। इसमें विभिन्न प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन है। सत्रहवीं विंशिका योगविधान विंशिका है। उसमें योग के स्वरुप का विवेचन है । अट्ठारहवीं केवलज्ञान विंशिका में केवलज्ञान के स्वरूप का विश्लेषण है। उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति-विंशिका में सिद्धों का स्वरूप वर्णित है। बीसवीं सिद्धसुख-विंशिका है जिसमें सिद्धों के सुख का विवेचन है । इस प्रकार इन बीस विंशिकाओं में जैनधर्म और साधना से सम्बन्धित विविध विषयों का विवेचन है । योगविंशिका यह प्राकृत में निबद्ध मात्र २० गाथाओं की एक लघु रचना है। इसमें जैन परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय-रूप प्रवृत्ति वाली परिभाषा के स्थान पर मोक्ष से जोड़ने वाले धर्म व्यापार को योग कहा गया है। साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इसकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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