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________________ ६७० जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों की मूलभूत शैली निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय खण्डनपरक ही है । अत: इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शन संग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्रस्तुतीकरण में वह निष्प्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती, जो प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराओं इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का क्रम आता है । मधुसूदन की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है। है। नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छ: प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने इसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं किन्तु उनकी दृष्टि भी हुआ है । आस्तिक-वैदिक दर्शनों में-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, खण्डनपरक ही है । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है । पं० दलसुखभाई उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अनकान्तवाद की स्थापना करना है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनशब्दों में नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई संग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है, वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है । जिस प्रकार उस मत की स्थापना के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ दलीलों से हो सकता है। स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रवष्टि रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं।' नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष मुनियों ने दर्शन प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस यत्किञ्चित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है किन्तु यह उदारता केवल प्रकार जैन परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ नहीं लिखा गया । निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है । इस प्रकार जैनेतर परम्पराओं के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यद्यपि सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में सन्देह अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने है । इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए इष्ट दर्शन को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अत: किसी सीमा हरिभद्र के पश्चात् जैन परम्परा में लिखे गए दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों तक इसकी शैली को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है में अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है किन्तु इतना निश्चित किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिम मत का भी प्रथम मत से खण्डन है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं' ऐसा उल्लेख है। पं० सुखलाल 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय करता है । अत: यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का ही अनुसरण करती है । अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभद्र का ग्रन्थ का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है । साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है। षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तूत भी है। जैनतर परम्पराओं में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जैन परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि माधवाचार्य (ई० १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम १२६५) के 'विवेकविलास' का 'सर्वदर्शनसंग्रह की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण सम्यग्दर्शन है । 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक- इन छ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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