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________________ तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर' ६६३ स सिद्धसेनोऽभय भीनसेनको गुरु परौ तौ जिनशांतिषणकौ। किशोर मुख्तार, पृष्ठ ५८०-५८२ । -वही,६६/२९। ७. देखें - प्रभावकचरित्त-प्रभाचन्द्र-सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ०५४स. प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसरः। ६१ । प्रबन्धकोश (चतुर्विंशतिप्रबन्ध), राजशेखरसूरि-सिंघी जैन सिद्धसेन कवि/यद्विकल्पनखराङ्कुरः ।। ज्ञानपीठ, पृ० १५-२१। -आदिपुराण (जिनसेन), १/४२ । प्रबन्ध चिन्तामणि, मेरुतुंग, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, पृ० ७-९ द. आसीदिन्द्रगृरुर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः। ८. प्रभावकचरित-वृद्धवादिसूरिचरितम्,पृ० १०७-१२० । तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतः । 'अनेकजन्मान्तरभग्नमान: स्सरो यशोदाप्रिय यत्परस्ते'-पंचम -पद्यचरित (रविषेण), १२३/१६७। द्वात्रिंशिका, ३६ । ज्ञातव्य है कि हरिवंशपुराण के अन्त में पुन्नाटसंघीय जिनसेन की १०. - सन्मतिसूत्र, २/४, २/७, ३/४६ । . अपनी गुरुपरम्परा में उल्लिखित सिद्धसेन तथा रविषेण द्वारा ११. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश- पं० जुगल किशोर पद्यचरित के अन्त में अपनी गुरु परम्परा में उल्लिखित दिवाकर म अपना गुरु परम्परा म उल्लाखत दिवाकर मुख्तार, पृ० ५२७-५२८ । यति- ये दोनों सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न हैं। यद्यपि हरिवंश के १२. सन्मतिप्रकरण-सम्पादक पं० सुखलाल जी एवं बेचरदास जी, प्रारम्भ में तथा आदिपुराण के प्रारम्भ में पूर्वाचार्यों का स्मरण करते ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, पृ० ३६-३७ । हए जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया गया है वे सिद्धसेन दिवाकर 13. Siddhasena's Nyayavatar and other works. A.N. ही हैं। Upadhye-Introduction- pp. xiii to zviii. इ. - जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, जुगल किशोर १४. सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होई। मुख्तार, पृष्ठ५००-५८५ । संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि।। फ. धवला और जयधवला में सन्मतिसत्र की कितनी गाथायें कहाँ सुत्तम्मि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं। उद्धृत हुई, इसका विवरण पं० सुखलाल जी ने सन्मतिप्रकरण केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई।। की अपनी भूमिका में किया है। देखें-सन्मतिप्रकरण 'भूमिका', ___ -सन्मतिप्रकरण, २/७-८ । पृष्ठ ५८ १५. सम्भिन्न ज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभाव ग्राहके ज. इसी प्रकार जटिल के वरांगचरित में भी सन्मतितर्क की अनेक निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने च नुसमयमपयोगो भवति । गाथाएं अपने संस्कृत रूपान्तर में पायी जाती हैं । इसका विवरण - तत्त्वार्थभाष्य, १/३१ । मैंने इसी ग्रन्थ के इसी अध्याय से वरांगचरित्र के प्रसंग में किया १६. कल्पसूत्र । १७. जैन शिलालोख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १४३ । 4. Siddhasena's Nyayavatāra and other works. A.N. १८. The Date and authorship of Nyayavatāra-M.A. Upadhye, Jaina, Sahitya Vikas Mandal, Bombay. 'In- Dhaky. 'Nirgrantha' Edited by M.A. Dhaky & troduction, pp.XIV-XVII Jitendra Shah, Sharadaben Chimanbhai Educational ५. यापनीय और उनका साहित्य- डॉ० कुसुम पटोरिया, वीर सेवा Research Centre, Ahmedabad-4. मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी-१९८८, पृ० १४३/१४८। र १९. अभिधर्मसमुच्चय, विश्वभारती शांतिनिकेतन १९५०, सांकथ्य १ ६. देखें- जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पं० जुगल परिच्छेद, पृ० १०५। दर्शने चानुसमकवार्थभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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