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________________ ६५६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं । किन्तु मुख्तारजी का उल्लेख करती हैं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ यह भी उल्लेख ये कैसे भूल जाते हैं कि प्रबन्ध ग्रन्थों के लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष करते हैं कि कुछ प्रश्नों को लेकर उनका श्वेताम्बर मान्यताओं से मतभेद पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और था, किन्तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता है कि वे किसी अन्य परम्परा उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं । जब प्रबन्धों के आचार्य थे । यद्यपि सिद्धसेन श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य को से प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का स्वीकार करते थे किन्तु वे आगमों को युगानुरूप तर्क पुरस्सरता भी उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो प्रदान करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने सन्मतिसूत्र में आगमभीरू सिद्धसेन का उल्लेख है वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर आचार्यों पर कटाक्ष किया तथा आगमों में उपलब्ध असंगतियों का कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का निर्देश भी किया है। परवर्ती प्रबन्धों में उनकी कृति सन्मतिसूत्र का है । पुनः श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन उल्लेख नहीं होने का स्पष्ट कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बर किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय आगम मान्य क्रमवाद का खण्डन है और मध्ययुगीन सम्प्रदायगत का नहीं बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता के मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके बावजूद अपनी ही परम्परा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो । अतः जानबूझकर उन्होंने हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह उसकी उपेक्षा की। भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेल धारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परम्परा के व्यक्ति को दिगम्बर सिद्ध करने के उद्देश्य से यह मत भी प्रतिपादित किया है को होता है- अन्य परम्परा के व्यक्ति को नहीं । अत: सिद्धसेन दिगम्बर कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन, कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता परम्परा के आचार्य थे, यह किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होता है। सिद्धसेन और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन- ये तीनों अलग-अलग केवल यापनीय ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का व्यक्ति हैं। उनकी दृष्टि में सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय परम्परा दिगम्बर हैं- शेष दोनों श्वेताम्बर हैं। किन्तु यह उनका दुराग्रह मात्र हैमें मान्य रहे हैं। पुनः श्वेताम्बर धारा के कुछ बातों में अपनी मत-भिन्नता वे यह बता पाने में पूर्णत: असमर्थ रहे हैं कि आखिर ये दोनों सिद्धसेन रखने के कारण उनको यापनीय या दिगम्बर परम्परा में आदर मिलना कौन हैं? सिद्धसेन के जिन ग्रन्थों में दिगम्बर मान्यता का पोषण नहीं अस्वाभाविक भी नहीं है । जो भी हमारे विरोधी का आलोचक होता है, होता हो, उन्हें अन्य किसी सिद्धसेन की कृति कहकर छुटकारा पा लेना वह हमारे लिए आदरणीय होता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। उचित नहीं कहा जा सकता । उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर ये कुछ श्वेताम्बर मान्यताओं का विरोध करने के कारण सिद्धसेन यापनीय द्वात्रिंशिकायें कौन से सिद्धसेन की कृति हैं और क्यों इन्हें अन्य सिद्धसेन और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में आदरणीय रहे हैं, किन्तु इसका अर्थ की कृति माना जाना चाहिए ? मात्र श्वेताम्बर मान्यताओं का उल्लेख यह नहीं है कि वे दिगम्बर या यापनीय हैं । यह तो उसी लोकोक्ति के होने से उन्हें सिद्धसेन की कृति होने से नकार देना तो युक्तिसंगत नहीं आधार पर हुआ है कि शत्रु का शत्रु मित्र होता है । किसी भी दिगम्बर है। यह तो तभी सम्भव है जब अन्य सुस्पष्ट आधारों पर यह सिद्ध हो परम्परा के ग्रन्थ में सिद्धसेन के जीवनवृत्त का उल्लेख न होने से तथा चुका हो कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा में उनके जीवनवृत्त का सविस्तार उल्लेख होने से तथा प्रतिभा समानता के आधार पर पं० सुखलाल जी इन द्वात्रिंशिकाओं को श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उन्हें कुछ काल के लिए संघ से निष्कासित किये सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ मानते हैं।२। श्वेताम्बर परम्परा में जाने के विवरणों से यही सिद्ध होता है कि वे दिगम्बर या यापनीय सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि का उल्लेख मिलता है, परम्परा के आचार्य नहीं थे । मतभेदों के बावजूद श्वेताम्बरों ने सदैव ही किन्तु इनमें सिद्धसेन दिवाकर को ही सन्मतिसूत्र,स्तुतियों (द्वात्रिंशिकाओं) उन्हें अपनी परम्परा का आचार्य माना है। दिगम्बर आचार्यों ने उन्हें 'द्वेष्य- और न्यायावतार का कर्ता माना गया हैं । सिद्धसेनगणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य सितपट' तो कहा, किन्तु अपनी परम्परा का कभी नहीं माना । एक भी की वृत्ति के कर्ता हैं और सिद्धर्षि-सिद्धसेन के ग्रन्थ न्यायावतार के ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं है जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को टीकाकार हैं । सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि को कहीं भी द्वात्रिंशिकाओं और दिगम्बर परम्परा का कहा गया हो । जबकि श्वेताम्बर भण्डारों में न्यायावतार का कर्ता नहीं कहा गया है । सिद्धर्षि न्यायावतार के उपलब्ध उनकी कृतियों की प्रतिलिपियों में उन्हें श्वेताम्बराचार्य कहा टीकाकार हैं, न कि कर्ता। गया है। पुन: आज तक एक भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि किसी श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर भी यापनीय या दिगम्बर आचार्य के द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में कोई ग्रन्थ मध्यकाल तक सिद्धसेन के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पुनः लिखा गया हो । यापनीय और दिगम्बर आचार्यों ने जो कुछ भी प्राकृत सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकायें स्पष्ट रूप से महावीर के विवाह आदि में लिखा है वह सब शौरसेनी प्राकृत में ही लिखा है, जबकि सन्मतिसूत्र श्वेताम्बर मान्यता एवं आगम ग्रन्थों की स्वीकृति और आगमिक सन्दर्भो स्पष्टत: महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। सन्मतिसूत्र का महाराष्ट्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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