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________________ भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार फैले उनकी मृत्यु के प्रवाद का उल्लेख मानना होगा। चूँकि बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रुकुणिक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष ३१ में हुआ, अतः महावीर का निर्वाण २२वें वर्ष में ३२ हुआ होगा। अतः इतना निश्चित है कि महावीर का निर्वाण बुद्ध के निर्वाण के १४ वर्ष बाद हुआ। इसलिये बुद्ध की निर्वाण की तिथि का निर्धारण महावीर की निर्वाण तिथि को प्रभावित अवश्य करेगा। सर्वप्रथम हम महावीर की निर्वाण तिथि का जैनस्त्रोतों एवं अभिलेखों के आधार पर निर्धारण करेंगे और फिर यह देखेंगे कि इस आधार पर बुद्ध की निर्वाण तिथि क्या होगी ? महावीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण करते समय हमें यह देखना होगा कि आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र की महापद्मनन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से, आचार्य सुहस्ति की सम्प्रति से, आर्य मंक्षु (मंगू), आर्य नन्दिल, आर्च नागहस्ति, आर्यवृद्ध एवं आर्य कृष्ण की अभिलेखों में उल्लेखित उनके काल से तथा आर्य देवर्द्धिक्षमाश्रमण की वल्लभी के राजा ध्रुवसेन से समकालीनता किसी प्रकार बाधित नहीं हो। इतिहासविद् सामान्यतया इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि चन्द्रगुप्त का राज्यसत्ताकाल ई.पू. २९७ तक रहा है। ३३ अतः वही सत्ताकाल भद्रबाहु और स्थूलीभद्र का भी होना चाहिये। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि चन्द्रगुप्त ने नन्दों से सत्ता हस्तगत की थी और अन्तिम नन्द के मन्त्री शकडाल का पुत्र स्थूलीभद्र था। अतः स्थूलीभद्र को चन्द्रगुप्त मौर्य का कनिष्ठ समसामयिक और भद्रबाहु को चन्द्रगुप्त मौर्य का वरिष्ठ समसामयिक होना चाहिये चाहे यह कथन पूर्णतः विश्वसनीय माना जाये या नहीं माना जाये कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी फिर भी जैन अनुश्रुतियों के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि भद्रबाहु और स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के समसामयिक थे। स्थूलीभद्र के वैराग्य का मुख्य कारण उसके पिता के प्रति नन्दवंश के अन्तिम शासक महापद्यनन्द का दुर्व्यवहार और उनकी घृणित हत्या मानी जा सकती है । ३४ पुनः स्थूलीभद्र भद्रबाहु से नहीं, अपितु सम्भूतिविजय से दीक्षित हुए थे। पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के समय वाचना प्रमुख भद्रबाहु और स्थूलीभद्र न होकर सम्भूतिविजय रहे हैं- क्योंकि उस वाचना में ही स्थूलीभद्र को भद्रबाहु से पूर्व ग्रन्थों का अध्ययन कराने का निश्चय किया गया था अत: प्रथम वाचना नन्द शासन केही अन्तिम चरण में कभी हुई है। इस प्रथम वाचना का काल वीरनिर्वाण संवत् माना जाता है। यदि हम एक बार दोनों परम्परागत मान्यताओं को सत्य मानकर यह मानें कि आचार्य भद्रबाहु वीरनिर्वाण सं. १५६ से १७० तक आचार्य रहे ३५ और चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण सं. २१५ में राज्यासीन हुआ तो दोनों की सम-सामयिकता सिद्ध नहीं होती है। इस मान्यता का फलित यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यासीन होने के ४५ वर्ष पूर्व ही भद्रबाहु स्वर्गवासी हो चुके थे। इस आधार पर स्थूलीभद्र चन्द्रगुप्त मौर्य के लघु सम-सामयिक भी नहीं रह जाते हैं। अतः हमें यह मानना होगा कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीरनिर्वाण के १५५ वर्ष पश्चात् ही राज्यासीन हुआ । हिमवन्त स्थाविरावली ३५ एवं आचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व ७ में भी यही तिथि मानी गई है। इस आधार पर भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की Jain Education International ६५१ चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। लगभग सभी पट्टावलियाँ भद्रबाहु के आचार्यत्वकाल का समय वीरनिर्वाण १५६१७० मानती हैं। ३८ दिगम्बर परम्परा में भी तीन केवली और पाँच । श्रुतकेवलि का कुल समय १६२ वर्ष माना गया है । भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि ये अतः दिगम्बर परम्परानुसार भी उनका स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. १६२ मानना होगा। १९ इस प्रकार दोनों परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता सिद्ध हो जाती है। मुनि श्री कल्याणविजयजी ने चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की सम-सामयिकता सिद्ध करने हेतु सम्भूतिविजय का आचार्यत्वकाल ८ वर्ष के स्थान पर ६० वर्ष मान लिया। इस प्रकार उन्होंने एक ओर महावीर का निर्वाण समय ई.पू. ५२७ मानकर भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की समसामयिकता स्थापित करने का प्रयास किया । ४०. 'किन्तु इस सन्दर्भ में आठ का साठ मान लेना उनकी अपनी कल्पना है, इसका प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है। ४१ सभी श्वेताम्बर पट्टावलियाँ वीरनिर्वाण सं. १७० में ही भद्रबाहु का स्वर्गवास मानती हैं। पुनः तित्योगाली में भी वहीं निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण संवत् १७० में चौदह पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद (क्षय) प्रारम्भ हुआ। भद्रबाहु ही अन्तिम १४ पूर्वधर थे- उनके बाद कोई भी १४ पूर्वधर नहीं हुआ। अतः भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १७० में और दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. १६२ ही सिद्ध होता है और इस आधार पर भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व ४१० तथा ई.पू. ४६७ माना जाये । अन्य अभी विकल्पों में भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्दराजा और चन्द्रगुप्त मौर्य से समकालिकता घटित नहीं हो सकती है। "तित्योगाली पइत्रयं" में भी स्थूलीभद्र और नन्दराजा की समकालिकता वर्णित है। ४२ अतः इन आधारों पर महावीर का निर्वाण ई. पू. ४६७ ही अधिक युक्ति संगत लगता है। पुनः आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा की समकालीनता भी जैन परम्परा में सर्वमान्य है । इतिहासकारों ने सम्प्रति का समय ई.पू. २३१२२१ माना है। ४३ जैन पट्टावलियों के अनुसार आर्य सुहस्ति का युग प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण सं. २४५ - २९१ तक रहा है। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ को आधार बनाकर गणना करें तो यह मानना होगा कि आर्य सुहस्ति ई.पू. २८२ में युग प्रधान आचार्य बने और ई.पू. २३६ में स्वर्गवासी हो गये। इस प्रकार वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ में मानने पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा में किसी भी रूप में समकालीनता नहीं बनती है किन्तु यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो आर्य सुहस्ति का काल ४६७ - २४५ ई.पू. २२२ से प्रारम्भ होता है। इससे समकालिकता तो बन जाती है- यद्यपि आचार्य के आचार्यत्वकाल में सम्प्रति का राज्यकाल लगभग १ वर्ष ही रहता है। किन्तु आर्य सुहस्ति का सम्पर्क सम्प्रति से उसके यौवराज्य काल में, जब वह अवन्ति का शासक था, तब हुआ था और सम्भव है कि तब आर्य सुहस्ति संघ के युग प्रधान आचार्य न होकर भी प्रभावशाली मुनि रहे हों। ज्ञातव्य है कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012014
Book TitleSagarmal Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages974
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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